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दश-वकालिक-सूत्र ।
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अष्टम अध्ययन ।
अनलस साधुजन क्षान्ति आदि कत । श्रमण-धरमे सदा थाकेन संयुत ।। श्रामण्य-धर्मेते युक्त हयेन यखन । लभेन तखन साधु श्रेष्ठ ज्ञान धन ।।४३ इहलोक परलोक हितेर जनक । ज्ञानादि लभेन यिनि सुगति कारक ।। यतने सेवेन यिनि अति फुल्लमने । आगम - प्रवीण वृद्ध वहुदर्शी जने। सेइ साधु तपोरत उदार - हृदय । गुरु काछे जिज्ञासेन अर्थ विनिश्चय ।।४४ सुसंयुत करि साधु हस्त पाद काय । परम दुरिन्द्रिय करिया विजय ।। गुरुर आदेश लये संयत साधक । वसिवेन गुरु काछे विनय पूळक ॥४५ वन्दनादि असुविधा हेतु साधुजन । वसिवेना गुरु पार्श्वे पृष्टे वा कखन । गुरूर सम्मुखे साधु. ऊरुर उपर । राखिवे ना अन्य ऊरु साधक प्रवर । ४६ वलिवे.ना, साधु, कथा पृष्ट ना हइले । कहिवेना कोन कथा कथनेर काले । करिवना परोक्षेते दोपेर कीर्तन । वलिवेना सकपद अनृत वचन ।।४७