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श्राविकाओंके उद्धारमे हमने प्रतिवर्ष एक क्रोड द्रम्म अवश्य खर्चना, इससे ज्यादातो व्यय करना परन्तु कमती नहीं"।
मंत्रीश्वरको इस नियमका पालन करते देखकर सरिशेखरने "ज्ञांतिपालनवराह" का खिताब दिया था।
॥ तीर्थयात्राका समारोह ॥ एक समय श्रीनयचन्द्रसूरिजीका पत्र आया, मंत्रियोंने उसे गुरुप्रसाद समझकर आदरपूर्वक शिरोधार्य किया, वांचकर सकल कुटुंबको सहर्ष सुनाया।
पत्र द्वारा सूरिजीमहाराजने यह आज्ञा की थी कि-"आप दोनो ही भाइयोने पहले श्रीसिद्धाचलजीका संघ निकाला उस वक्त आपकी इतनी हैसीयत नहीं थी, आज आपके पास सर्वप्रकारकी सामग्री है इसलिये यदि तीर्थाधिराजकी यात्राका लाभ लिया जाय तो बहुत हर्षका कारण है।
इस पत्रको वांचकर अखिल मंत्रिकुटुंबने जो हर्ष मनाया था उसको ज्ञानीविना कौन कह सकताथा ।
१ हर्षका समय है कि जैन जातिमे आजभी ऐसे ऐसे उदार गृहस्थ संसारका उपकार और उद्धार कर रहे हैं । मुंबईके प्रसिद्ध और प्रख्यात जैन व्यापारी-प्रेमचंद-रायचंद-को कुल दुनिया जानती है बल्कि अग्रेज लोग तो प्रेमचंदको "व्यापारी शहेनशाह" के उपनामसे बुलाते थे, उस प्रेमचंद रायचंदने अपनी जिन्दगीमें ६० लाख रुपया परोपकारके कार्योंमे लगाकर श्रीजिनशासनकी ध्वजा फरकाई थी।
( देखो सनातन जैनपु. २-अंक ३-सं. १९०६ । है और राजाशिवप्रसादसितारे हिन्दके प्रन्थ ।