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________________ १६ मीभी अच्छे समर्थ थे, भीमदेवकी जैनधर्मपर बढती जाती आस्ताको देख इनके मनमें अनेक तरहके विचारजाल गूंथे जारहे थे । • भीमदेवके राज्याभिषेक समय नगरशेठ श्रीदत्तने राज्यतिलक करनेकी इजाजत मांगी, इजाजत मिली, राज्यतिलक नगरशेठके हाथसे हुआ, यहभी उन्हे सर्वथा अरुचिकर था । वह इसमें यह समझते थे कि वास्तविक रीतिसे सेनापति या मुख्यमंत्री कोही राज्यतिलक करनेका अधिकार होता है । यह आशय उन्होंने एक दफा सेनापति संग्रामसिंह और मंत्री सा - मन्त सिंहके पास जाहिर भी किया था, संग्रामसिंह मूल मारवाडदेश के वतनीथे, उन्हें अपनी टेकपर रहना बडा पसंद था, हम राजाकी नोकरी करते हैं, राजाने हमकों राज्यरक्षणके लिये आजीविका देकर अपने विश्वासपात्र बनारखा है, हमें उनकी नौकरी बजाने के बदले एक दूसरेके बुरेमें क्यों उतरना चाहिये ? येह सोचकर उन्होंने दामोदर महतासें इतनाही कहा - मंत्रीराज ! आप दाना हैं, आपकी समझके आगे मेरी बुद्धि तो तुच्छही है तो भी मेरी अर्ज इतनीही है कि राज्यके कामोंमें धार्मिक फिसादोंकों क्यों आगे करना चाहिये ? ॥ सिंधपर सवारी ॥ ऊपर " द्रोणाचार्य" वगैरह तीन आचार्यों के नाम लिखेजा चुके है, उनमे से "सूराचार्य "जीको बुलाकर अपने पंडितोसे धर्मवाद करानेके लिये मालवपति धारा नरेशने अपने मंत्रिलोगों को पाटण भेजा हुआथा, वह मालवमंत्री भीमदेवकी आज्ञा लेकर विदा हुए. थोडीदेर धारा नरेशकी सभाके ★
SR No.010030
Book TitleAbu Jain Mandiro ke Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1922
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size5 MB
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