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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
तरह इस शरीर में, पीड़ा करने वाले अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । शरद् ऋतु के मेघ की तरह यह काया, स्वभाव से ही, नाशमान है । यौवन भी देखते-देखते, बिजली की तरह, नाश हो जाने वाला है | आयुष्य पताका की तरह चञ्चल है। सम्पत्ति तरंगों की तरह तरल है । भोग भुजङ्ग के फण की तरह विषम हैं । संगम स्वप्न की तरह मिथ्या है। शरीर के अन्दर रहने वाला आत्मा, काम क्रोधादिक तापों से तपकर, पुटपाक की तरह, रात-दिन जता रहता है । अहो ! आश्चर्य की बात है कि, इन दुखदायी विषयों में सुख मानने वाले प्राणियों को, नरक के अपवित्र कीड़े की तरह, ज़रा भी विरक्ति नहीं होती । अन्धा आदमी जिस तरह अपने सामने के कुए को नहीं देखता; उसी तरह, दुरन्त विषयों के पक्षों में फँसा हुआ मनुष्य अपने सामने खड़ी हुई मृत्यु को नहीं देखता । ज़रा सी देर के लिए, विष के समान मीठे लगने वाले विषयों से, आत्मा मूर्च्छित हो जाता है, उसके होश - हवास ठिकाने नहीं रहते; इसीसे अपनी भलाई या हितका कुछ भी विचार नहीं कर सकता । चारों पुरुषार्थों के बराबर होने पर भी, आत्मा पापरूप 'अर्थ और काम' में ही प्रवृत्त होता है; यानी धर्म और मोक्ष का ख़याल भुलाकर, केवल धन और स्त्री का ही ध्यान रखता है— धर्म और मोक्ष की प्राप्ति में प्रवृत्त नहीं होता । प्राणियों को, इस अपार संसार रूपी समुद्र में, अमूल्य रत्न के समान, मनुष्यभव मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । कदाचित मनुष्य-भव प्राप्त हो भी जाय, तोभी उसमें भगवान् अरहन्तदेव और सुसाधु गुरु तो