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लता, वर्णनको शक्ति और प्रतिभाकी अलौकिकता देखकर आश्चर्य में डूब जाना पड़ता है। आचार्यने इस ग्रन्थको दस भागों में बाँटा है। प्रत्येक भाग पर्व कहलाता है। इन पर्वो में आचार्य ने जैन - सिद्धान्तके सारे रहस्योंको कूट-कूटकर भर दिया है। भिन्नभिन्न प्रभुओं को देशना में नयका स्वरूप, क्षेत्र- समास, जीवविचार, कर्मस्वरूप, आत्माके अस्तित्व, बारह भावना, संसार से वैराग्य, जीवनकी चञ्चलता और बोध तथा ज्ञान के सभी छोटेबड़े विषयोंका इस सरलता और मनोरञ्जकता के साथ इसमें समावेश किया गया है, कि कथानुयोगकी महत्ता और प्रभावोत्पादकता स्पष्टही विदित हो जाती है। इन सब बातोंको पढ़सुनकर पाठकों और श्रोताओंके मनपर स्थायी प्रभाव पड़ता है और उनकी कर्त्तव्य-बुद्धि जागृत हो जाती है। इस ग्रन्थकी बड़ेबड़े पाश्चात्य विद्वानोंने भी प्रशंसा की है। यह संवत् १२२० में अर्थात् आजसे प्राय; आठसौ वर्ष पहले लिखा गया था । वर्त्तमान ग्रन्थ उसी 'त्रिषष्टि- शलाका पुरुष- चरित्र' नामक महाकाव्य के प्रथम पर्वका अनुवाद है। इसमें ६ सर्ग हैं। पहले सर्ग में श्री ऋषभदेव के प्रथमके १२ भावोंका वर्णन है, जिसमें धर्मघोष सूरिकी देशना ख़ास करके देखने लायक है । महाबल राजाकी सभा में मंत्रियों का धार्मिक संवाद भी ख़ूब गौरके साथ पढ़ने की चीज़ है । अन्त में मुनियोंकी उपार्जित लब्धियों तथा २० स्थानकोंका वर्णन भी पाठ करने योग्य है |
दूसरे सर्गमें कुलधारोत्पत्ति और श्री ऋषभदेव भगवान्के
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