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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
गुरु के चरण-कमलों तथा अन्य मुनियों को वन्दना कर के, अपने आत्माको धन्य मानता हुआ अपने निवास-स्थानको गया । इस प्रकार की धर्म देशना से परमानन्द में मग्न सार्थवाह ने वह रात एक क्षण के समान बिता दी। सोकर उठे हुए उस सार्थवाह के समीप - भाग में, प्रातः काल के समय, कोई मंगलपाठक शंख-जैसी गंभीर और मधुर ध्वनिके साथ इस प्रकार बोला:- 'घोर अन्धकार से मलीन, पद्मिनी की शोभाको चुरानेवाली और पुरुषोंके व्यवसाय को हरने वाली रात - वर्षा ऋतु की तरह - चलो गई है। जिस में तेजस्वी और प्रचण्ड किरणों वाला सूर्य उदय हुआ है और जो व्यवसाय कराने में सुहृद के समान है, ऐसा यह प्रातः काल, शरद ऋतु के समय की माफ़िक़, वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। जिस तरह तत्त्वज्ञान से बुद्धिमानों के मन निर्मल हो जाते हैं; उसी तरह इस शरद ऋतु में, सरोवर और नदियोंके जल निर्मल होने लग गये हैं। जिस तरह आचार्य के उपदेश से ग्रन्थ संशय-रहित हो जाते हैं; उसी तरह, सूर्य की किरणों से कीचड़ सूख जाने के कारण, राहें साफ हो गई हैं । मार्ग के चीलों और चक्रधारा के बीच में जिस तरह गाड़ियाँ चलती हैं; उसी तरह नदियाँ अपने दोनों किनारों के बीच में बहने लग गई हैं और मार्ग - पके हुए तुच्छ धान्य, सावाँ, नीवार, वालुंक और कुंवल आदि से - पथिकों का आतिथ्य सत्कार करते हुए से मालूम हो रहे हैं। शरद् ऋतु, वायु से हिलते हुए गन्नों के शब्द से, प्रवासियों को सवारियों पर चढ़ने के समय की सूचना सी देती मालूम हो रही है। सूर्य की प्रचण्ड किरणोंसे झुलसे
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