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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
धर्मोपग्रह दान । दायकशुद्ध, ग्राहकशुद्ध, देयशुद्ध, कालशुद्ध और भावशुद्ध, इस तरह 'धर्मोपग्रह दान' पाँच प्रकार का होता है। उसमें न्यायोपार्जित द्रव्यवाला, अच्छी बुद्धि वाला, इच्छा-रहित और दान देकर पश्चात्ताप नहीं करने वाला मनुष्य जो दान देता है, वह 'दायक शुद्ध दान' कहलाता है। ऐसा चित्त और ऐसा पात्र मुझे प्राप्त हुआ, इसलिए मैं कृतार्थ हुआ, जो ऐसा मानने वाला हो, वह 'दायक शुद्ध होता है। सावध योग से विरक्त, तीन गौरव से वज्जित, तीन गुप्ति धारक, पाँच समिति पालक, राद्धघ से रहित, नगरवस्ती-शरीर-उपकरण आदि में निर्मम, अठारह हजार साल के धारक, ज्ञान, दर्शन और चारित्र-रूप रत्नत्रय के धारक, धीर, सोने और लोहे को समान समझने वाले, दो शुभ ध्यान ( धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान ) को धारण करने वाले, जितेन्द्रिय, उदरपूर्ति जितना ही आहार लेने वाले, निरन्तर यथा-शक्ति अनेक प्रकार के तप करने वाले, अखण्ड रूपसे सत्रह प्रकार के संयम को पालने वाले, अठारह प्रकार के ब्रम्हचर्य का आचरण करने वाले ग्राहक को दान देना—'ग्राहक शुद्ध दान' कहलाता है। बयालीस दोष-रहित ; असन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र और संथारा आदि का दान–'देयशुद्ध दान' कहलाता है। योग्य समय पर, पात्र को दान देना-काल शुद्ध दान' कहलाता है और कामना-रहित श्रद्धापूर्वक जोदान दिया जाता है, वह भाव शुद्ध दान' कहलाता है। देह के बिना धर्म नहीं होता और अन्नादिक के बिना देह नहीं