________________
आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व ष्टाहिका-उत्सव किया और फिर इन्द्र सहित सारे देवता अपने अपने स्थानको चले गये। वहाँ पहुंच कर इन्द्रोंने अपने-अपने विमानों में सुधर्मा-सभाके अन्दर माणवक-स्तम्भ पर वज्रमय गोल डिब्बियोंमें प्रभुकी डाढोंको रखकर प्रतिदिन उनकी पूजा करनी आरम्भ की, जिसके प्रभावसे उनका सदैव विजय-मङ्गल होनेलगा।
महाराज भरतने प्रभुका जहाँ संस्कार हुआ था, वहाँकी भूमि के पासवाली भूमिमें छ: कोस ऊँचा मोक्ष-मन्दिरकी वेदिकाके समान सिंहनिषद्या' नामका प्रासाद रत्नमय पाषाणों और वार्द्धकिरत्नोंसे बनवाया । उसके चारों तरफ़ उन्होंने प्रभुके समवसरणकी तरह स्फटिक रत्नोंके चार द्वार बनवाये और प्रत्येक द्वारके दोनों तरफ़ शिव-लक्ष्मीके भाण्डारकी भांति रत्न-चन्दनके सोलह कलश बनवाये। प्रत्येक द्वारपर साक्षात् पुण्यवल्लीके समान सोलहसोलह रत्नमय तोरण बनवाये। प्रशस्त लिपिकी भांति अष्टमाङ्गलिंककी सोलह-सोलह पंक्तियाँ बनवायीं और मानों चारों दिक्पालोंकी सभा ही वहाँ लायी गयी हो, ऐसे विशाल मुखमण्डप बनवाये। उन चारों मुखमण्डपके आगे चलते हुए श्रीवल्ली मण्डपके अन्दर चार प्रेक्षासदन-मण्डप बनवाये। उन प्रेक्षामण्डपोंके बिचोंबीचमें सूर्यबिम्बको लजानेवाले वज्रमय अक्षवाट रचाये और प्रत्येक अक्षवाटके मध्यमें कमलकी कर्णिकाकी भांति एक-एक मनोहर सिंहासन बनवाया। प्रेक्षामण्डपके आगे एक एक मणि-पीठिका बनायी गयी, उसके ऊपर रत्नोंका मनोहर चैत्य-स्तूप बना और प्रत्येक चैत्य-स्तूपमें आकाशको प्रकाशित