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प्रथम पव
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आदिनाथ-चरित्र
तरह चिन्ता में डूबे हुए सार्थवाह को क्षणभर में नींद आगई । "जिसे अति दुःख या अति सुख होता है, उसे तत्काल नींद आजाती है, क्योंकि ये दोनों निद्रा के मुख्य कारण हैं।" जब रात के चौथे पहर का आरम्भ हुआ, तब अश्वशाला के एक उत्तम आशयवाले पहरेदार ने नीचे लिखी हुई बातें कहीं:
धनसेठकी उद्विग्नता। "हमारे स्वामी, जिनकी कीर्ति दशों दिशाओं में फेल रही है, स्वयं वे संकटापन्न अवस्था में होनेपर भी, अपने शरणागतों का पालन भले प्रकार करते हैं।” पहरेदार की उपरोक्त बात सुनकर सार्थवाह ने विचार किया कि, किसी शख्स ने ऐसी बात कहकर मुझे उलाहना दिया है। मेरे संघ में दुखो कौन है ? अरे ! मुझे अब ख़याल आता है, कि मेरे साथ धर्मघोष आचार्य आये हैं। वे अकृत, अकारित और प्रासुक भिक्षा से ही उदरपोषण करते हैं। कन्दमूल और फलफूल आदि को तो वे छूते भी नहीं। इस कठिन समय में, वे कैसे रहते होंगे? इस दुःख की अवस्था में उनकी गुज़र कैसे होती होगी ? ओह ! जिन आचार्य को, राहमें सद तरह की सहायता देने की बात कहकर, मैं अपने साथ इस सफर में लाया हूं, उनकी मैं आज ही याद करता हूँ। मुझ मूर्ख ने यह क्या किया! आज तक जिनका मैंने वाणीमात्र से भी कभी सत्कार नहीं किया, उनको आज मैं किस तरह मुंह दिखलाऊँगा ? खैर ! गया समय हाथ नहीं