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प्रथम पव ..
५०५ आदिनाथ-चरित्र संसारमें मेरा कैसा अनुराग है ! और यह सब महापुरुषोंके आचारसे कैसा उलटा पड़ता है!” इस प्रकारकी बातें सोचनेसे राजा के मनमें ठीक उसी प्रकार धर्मका ध्यान क्षण भरके लिये समा गया, जैसे समुद्रमें गङ्गाका प्रवाह प्रवेश करता है। परन्तु पीछे वे बारम्बार शब्दादिक इन्द्रियोंमें आसक्त हो जाते थे, क्योंकि भोग-फल-कर्मको अन्यथा कर डालनेको कोई समर्थनहीं होता। ___ एक दिन पाक-शालाके अध्यक्षने महाराजके पास आकर कहा,-" महाराज ! इतने लोग भोजन करने आते हैं, कि यह समझमें नहीं आता, कि ये सबके सब श्रावकही हैं या और भी कोई हैं ?” यह सुन, राजा भरतने आशा दी, कि तुम भी तो श्रावक हो हो, इसलिये आजसे परीक्षा करके भोजन दिया करो। अबतो पूछने लगा, कि तुम कौन हो.? जब वह बतलाता, कि मैं श्रावक हूँ, तब वह पूछता, कि तुममें श्रावकोंके कौन-कौनसे व्रत हैं। ऐसा पूछने पर जब वे बतलाते, कि हमारे निरन्तर पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा-व्रत हैं, तब वह संतुष्ट होता। इसी प्रकार परीक्षा करके वह श्रावको को भरत राजाको दिखलाता और महाराज भरत, उनकी शुद्धिके लिये उनमें कांकिणी-रत्नसे उत्तरासङ्गकी भाँति तीन रेखाएँ शान, दर्शन और चारित्रकेचिह्न-स्वरूप करने लगे। इसी प्रकार प्रत्येक छठे महीने नये-नये श्रावकोंकी परीक्षा की जाती
और उनपर काँकिणी-रत्नके चिह्न अङ्कित किये जाते। उसी चिहको देखकर उन्हें भोजन दिया जाता और वे "जितोभवान्' इत्यादि बचनका ऊँच स्वरसे पाठ करने लगते। इसीका पाठ