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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
ऊपर गिरिकी तरह गरिष्ट जगत्गुरु आ विराजे । हवा के झोंके से गिरनेवाले फूलों और झरनोंके जलसे वह पर्वत मानों जगत्पति प्रभुको अद्य: र्ध्या-पाद्य दे रहा हो, ऐसा मालूम पड़ता था । प्रभुके चरणोंसे पवित्र बना हुआ वह पर्वत, प्रभुके जन्म- स्नात्र
से पवित्र बने हुए मेरुसे अपनेको कम हर्षित कोकिलादि शब्दों के मिषसे वह
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का गुण गान कर रहा था।
अब उस पर्वत के ऊपर वायुकुमार देवोंने एक योजन प्रदेश में मार्जन करनेवाले सेवकोंसे ऐसी सफाई करवा दी, कि कहीं तृणकाष्ठादि नहीं रहे। इधर मेघकुमारोंने पानी ढोनेवाले भैंसोंकी तरह बादलोंको लाकर उस भूमिको सुगन्धित जलसे सींच दिया। इसके बाद देवताओंने सुवर्ण रत्नोंकी विशाल शिलाओंसे दर्पण जैसी समतल ( चौरस ) भूमि बना ली । उसपर व्यन्तर देवताओंने इन्द्र-धनुषके खण्डकी भाँति पाँच रंगोंवाले फूलोंकी घुटने भर वृष्टि कर डाली और यमुना नदी की तरंगों की शोभा धारण करनेवाले वृक्षोंके आर्द्रा-पल्लवों के तोरण चारों ओर बाँधे । चारों ओर स्तम्भों पर राकृति तोरण, सिन्धुके दोनों तटोंमें रहनेवाले मगरकी तरह दिखला रहे थे। उसके बीचमें मानों चारों दिशाओंरूपिणी देवियों के दर्पण हों, ऐसे चार छत्र और आकाश गङ्गाकी चञ्चल तरङ्गों का धोखा देनेवाली पवनले सञ्चालित ध्वजापताकाएँ शोभा दे रही थीं । उन तोरणोंके नीचे मोतीका बना हुआ
बाँधे हुए मक
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नहीं समझता था ।
पर्वत मानों जगत्पति:
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