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प्रथम पर्व
४८६ आदिनाथ चरित्र तरङ्गोंसे समुद्र शोभित हाता है, वैसेही जघन्यकोटि संख्यावाले और बारम्बार गमनागमन करते हुए सुरासुरोंसे वे भी शोभित हो रहे थे। मानों भक्तिवश दिनमें भी प्रभासहित चन्द्रमा उदय हो आया हो, ऐसा उनका छत्र आकाशमें शोभा दे रहा था। और मानों चन्द्रमासे पृथक् की हुई समस्त किरणोंका कोष हो, ऐसा गङ्गाकी तरंगोंके समान श्वेत चमर उनपर दुल रहा था। नक्षत्रोंले घिरे हुए चन्द्रमाके समान, तपसे प्रदीप्त और सौम्य. लाखों उत्तम श्रमणोंसे वे घिरे रहते थे। जैसे सूर्य प्रत्येक सागर और. सरोवरमें कमलको खिलाता है, वैसेही वे महात्मा प्रत्येक नगर और ग्राममें भव्य जीवोंको प्रतिबोध दिया करते थे। इस प्रकार विचरण करते हुए भगवान ऋषभदेवजी एक दिन अष्टापद पर्वतपर आये। मानों बढ़ी-चढ़ी हुई सुफेदी के कारण शरदऋतुके बादलोंका एक स्थान पर जमा किया हुआ ढेर हो, स्थिर हुए क्षीर समुद्रका लाकर छोड़ा हुआ वेलाकूट हो अथवा प्रभुके जन्माभिषेकके समय इन्द्र के विक्रय किये हुए चार वृषभोंमेंसे एक वृषभ हो-ऐसाही वह पर्वत मालूम होता था। साथही वह पर्वत नन्दीश्वर-द्वीपको पुष्करिणीमें रहनेवाले दधि-मुख-पर्वतोंमेंसे एक पर्वत, जम्बुद्वीप-रूपी कमलकी एक 'नाल, अथवा पृथ्वीके ऊँचे श्वेतवर्ण मुकुटकी भांति शोभा पा रहा था। उसकी निर्मलता और प्रकाशको देखकर यही मालूम होता था, मानों देवतागण उसे सदा जलसे नहलाते और वस्त्रसे पोंछते रहते हैं। वायुसे उड़ायी हुई काल-रेणुओंसे निर्मल