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________________ आदिनाथ चरित्र ४८० प्रथम पर्व यही कहकर वे दोनों देवियाँ जिधरसे आयी थों, उधर ही चली गयीं, उनकी बात सुन मन-ही-मन विस्मित हो महात्मा बाहुबलीने विचार किया,- “सब प्रकारके सावध योगोंका त्याग, वृक्षकी तरह कायोत्सर्ग करने वाला मैं इस जंगलमें हाथी पर बढ़ा हूं। यह कैसी बात है ? वे दोनों आर्याएँ भगवानकी शिध्याएँ हैं, पर किसी तरह झठ नहीं बोल सकतीं। फिर मैं उनकी इस बातसे क्या समझू ? ओह ! अब मालूम हुआ। ब्रत में बड़े और वयसमें छोटे भाइयोंको मैं कैसे नमस्कार करूँगा? यही अभिमान जो मेरे मनमें घुसा हुआ है, वही मानों हाथी है, जिस पर मैं निर्भयताके साथ सवार हूँ। मैंने तीनों लोकके. स्वामीकी बहुत दिनों तक सेवा की, तो भी जैसे जलचर जीवोंको जलमें तैरना नहीं आता, वैसेही मुझको भी विवेक नहीं हुआ। इसीलिये तो पहलेसे ही व्रत ग्रहण किये हुए महात्मा भाइयोंको छोटा समझ कर ही मैंने उनकी बन्दना करनी नहीं चाही। अच्छा, रहो-मैं आजही वहाँ जाकर उन महामुनियोंकी बन्दना करूंगा।" - ऐसा विचार कर ज्योंही महाप्राण बाहुबलीने अपने पैर उठाये, त्योंही चारों ओरसे लताएँ टूटने लगी-साथही घातो कर्म भी टूटने लगे और उसी पग पर उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो आया। ऐसे केवलज्ञान और केवल-दर्शनवाले सौम्य मूर्ति महात्मा बाहुबली उसी प्रकार ऋषभस्वामीके पास आये, जैसे चन्द्रमा सूर्यके पास जाता हैं। तीर्थंकारकी प्रदक्षिणा कर, उन्हें प्रणामकर जगतसे वन्दनीय बाहुबली मुनि, प्रतिक्षासे मुक्त हो, केवलीकी परिषदमें जा बैठे।
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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