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________________ आदिनाथ-चरित्र ४२४ प्रथम पर्व अभिमानमें चूर होकर तीनों लोकको तृण समान जानते हैं और सिंहकी तरह किसीको अपनी बराबरीका वीर नहीं मानते। मैंने जब आपके सेनापति सुषेण और आपकी सेनाका वर्णन किया, तब उन्होंने उसी तरह नाक साकोड ली, जैसे दुर्गंधकी महँक पाकर आदमी नाक सिकोड़ लेता है । साथ ही यह भी कहा, कि ये किस गिनतोमें है ? जब आपकी षट्खण्ड विजयका मैंने वर्णन किया, तब उन्होंने उसे अनसुना सा कर, अपने भुजदण्डको देखते हुए कहा,-"मैं अपने पिताके दिये हुये राज्यसे हो सन्तुष्ट हूँ, इसीलिये मेरी उपेक्षाके ही कारण भरत भरत-क्षेत्रके छहों खण्डोंको पा सके हैं।” सेवा करनी तो दूर रही, अभी तो वे निभंयताके साथ आपको रणके लिये बुलावा दे रहे हैं, जैसे कोई सिंहनीको दूहनेके लिये बुलाये आपके भाई ऐसे पराक्रमी, मानी और महाभुज हैं, कि वे गन्धहस्तीकी तरह अस्मा और पराये पराक्रमको नहीं सहन करनेवाले हैं। इन्द्रके सामानिक देवताओंकी तरह उनकी सभामें बड़े प्रचण्ड पराक्रमी सामन्तराजा हैं; इसलिये वे न्यून आशयवाले भी नहीं हैं। . उनके राजकुमार भी अपने राजतेज के कारण अत्यन्त अभिमानी हैं। युद्धके लिये उनकी बाँहोंमें खुजली पैदा हो रही है, इसी लिये वे बाहुबलीसे दसगुने पराक्रमी मालूम पड़ते हैं। उनके अभिमानी मन्त्री भी उन्हींके विचारोंके अनुसार चलते हैं क्योंकि जैसा स्वामी होता है, वैसाही उसका परिवार भी होता है। सती स्त्रियाँ जैसे पराये पुरुषको नहीं देखती, वैसेही उनकी प्रजा
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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