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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
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प्रदक्षिणा की और पञ्चाङ्गसे भूमिको स्पर्श कर नमस्कार किया। उस समय ऐसा मालूम हुआ मानों वे रत्नों पर पड़े हुए प्रभुका प्रतिविम्ब देखनेकी इच्छासे ही गिर पड़े हों। इसके बाद चक्रवतीने भक्तिसे पवित्र बनी हुई बाणीके द्वारा प्रथम धर्म-चक्री की (तीर्थङ्कर की) इस तरह स्तुति करनी आरम्भ की। ___ “ हे प्रभु! अविद्यमान गुणोंको बतलानेवाले मनुष्य, अन्य जनोंकी स्तुति कर सकते हैं ; पर मैं तो आपके विद्यमान गुणोंको भी कहने में असमर्थ हूँ; फिर मैं कैसे आपकी स्तुति कर सकता हूँ? तथापि जैसे दरिद्र मनुष्य भी धनवानोंको नज़राना देते हैं, वैसे ही मैं भी, हे जगन्नाथ ! आपकी स्तुति करता हूँ। हे प्रभु ! जैसे चन्द्रमाकी किरणोंको पाकर शेफालीके फूल झड़ जाते हैं, वैसे ही आपके चरणोंके दर्शन करते ही मनुष्योंके पूर्व जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं। हे स्वामी ! जिनकी चिकित्सा नहीं हो सकती, ऐसे महामोहरूपी सन्निपातसे पीड़ित प्राणियोंके लिये आपकी वाणी वैसी ही फलप्रद है, जैसी अमृतकी सी रसायन। हे नाथ! जैसे वर्षाकी बूंदें चक्रवर्ती और भिक्षुक पर एक समान पड़ती हैं, वैसे ही आपकी दृष्टि सबकी प्रीतिसम्पत्तिका एकसाँ कारण होती है। हे स्वामी ! क्रूर-कर्म-रूपी बर्फ के टुकड़ोंको गला देने वाले सूर्य की तरह आप हम जैसोंके बड़े पुण्यसे इस पृथ्वीमें विहार करते हैं। हे प्रभु! शब्दानुशासनमें (व्याकरणमें ) कहे हुए संज्ञा-सूत्रकी तरह आपकी त्रिपदी जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमय है, सदा जयवती है। हे भगवन् ! जो