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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
स्वीकार करते और उन पर कृपा करते थे, खेतों में पड़ने वाली गायोंकी तरह, गावोंमें चारों ओर फैलने वाले सैंनिकों को अपने आज्ञारूपी उग्रदण्डले रोकते थे, बन्दरोंकी तरह वृक्षोंपर चढ़ कर अपने तई (महाराजके तई ) हर्ष - पूर्वक देखने वाले गाँवके बालकों को पिताकी तरह प्रेमले देखते थे, धन, धान्य और जीवनसे निरुपद्रवी गांवोंकी सम्पत्ति को अपनी नीतिरूपी लता के फलरूपसे देखते थे; नदियोंको कीचयुक्त करते थे; सरोवरों सोखते थे और बावड़ी तथा कुओंको पाताल- विचरकी तरह खाली करते थे । दुर्विनीत शत्रुओंको शिक्षा देनेवाले महाराज भरत इस तरह मलय पवनकी तरह लोगोंको सुख देते हुए और धीरे-धीरे चलते हुए अयोध्यापुरी के समीप आ पहुँचे । मानों अयोध्याका अतिथिरूप सहोदर हो, इस तरह अयोध्या के पासकी ज़मीन में महाराजने पड़ाव डाला। फिर राज शिरोमणि भरतने राजधानीको मनमें यादकर उपद्रव रहित प्रोतिदायक अष्टम तप किया । अष्टम भक्त के अन्तमें पौषधालय से बाहर निकल, अन्य राजाओंके साथ दिव्य भोजनसे पारणा किया । अयोध्या की विशेष शोभा ।
इधर अयोध्या में स्थान-स्थान पर, मानों दिग् दिगन्तसे आई हुई लक्ष्मीके खेलनेके झूले हो; ऐसे ऊंचे ऊंचे तोरण बँधने लगे । जिस तरह भगवानके जन्म समय में देवता सुगन्धित जलकी वर्षा करते हैं, उसी तरह नगरके लोग प्रत्येक