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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र रोमावली थी। कामदेवकी शय्याके जैसे उसके विशाल नितम्ब थे। हिंडोलेके सुन्दर खम्भोंके जैसे उसके दोनों उरूदण्ड थे। हिरनीकी जाँघोंका तिरस्कार करने वाली उसकी दोनों जायें थीं। मोथोंकी तरह उसके चरण भी कमलोंका तिरस्कार करने वाले थे। हाथों और पावोंकी अंगुलियोंसे वह पल्लवित लता सी दीखती थी । प्रकाशमान नखरूपी रत्नोंसे वह रत्नाचलकी तरीसी मालूम होती थी, विशाल, स्वच्छ, कोमल और सुन्दर वस्त्रोंसे वह मन्द मन्द वायुसे तरंगित सरिताके समान दीखती थी। स्वच्छ, कान्तिसे तरङ्गित सुन्दर सुन्दर अवयवोंसे वह अपने सोने और जवाहिरातके गहनोंकी खूबसूरतीको बढ़ाती थी। छायाकी तरह उसके पीछे पीछे छत्रधारिणी स्त्रियाँ उसकी सेवा के लिये रहती थीं। दो हंसोंके बीचमें कमल जिस तरह मनोहर मालूम होता है, उसी तरह दो चँवरोंके अगल बग़ल फिरनेसे वह मनोमुग्धकर जान पड़ती थी। अप्सराओंसे लक्ष्मी की तरह और नदियोंसे जान्हवी-गंगाकी तरह वह सुन्दरी बाला, समान उन वाली हज़ारों सखियोंसे घिरी रहती थी। - नमि राजाने भी महामूल्यवान रत्न चक्रवर्तीको भेंट किये। क्योंकि स्वामी घर आवे तब महात्माओंको क्या आदेय है ? इसके बाद महाराज भरतसे विदा होकर नमि, विनमि अपने राज्यमें आये और अपने पुत्रोंके पुत्रोंको राज्य सौंप, विरक्त हो, ऋषभदेव भगवानके चरण-कमलमें जा, व्रत ग्रहण किया।