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________________ आदिनाथ चरित्र ३३८ प्रथम पर्व उनके सामने आई। देवीने आकाशमें ठहरकर “जय जय" कहते हुए आशीर्वाद पूर्वक कहा-“हे चक्रवर्ती ! मैं यहाँ आपकी टहलवी . होकर रहती हूँ आप आशादें वही काम करू।" यह कहकर लक्ष्मीदेवी के सस्व और निधानको सन्तति जेसे रत्नोंसे भरे हए १००८ कुम्भ या छड़े, कीर्ति और जय लक्ष्मीके एक साथ बैठनेको बने हों ऐने रलय दो भद्रासन, शेष नागके मस्तक पर रहने वाली मणियोंते बने हों ऐसे प्रदीप्त रत्नमय बाहुरक्षक-बाजूबन्द, बीच में सूर्यविककान्ति रक्खी हो ऐसे कड़, और मुह में समा जाने वाले दुलोमल--नर्मानर्म दिव्यवस्त्र उसने चक्रवर्तीको भेंट किये। सिन्दुराजकी तरह उन्होंने वे सब चीजें स्वीकार कर ली। और मधुर आलाप-मीठी मीठी बातोंसे देवीको प्रसन्न करके उन्होंने उसे विदा किया। पीछे पूर्णमासीके चन्द्रमा जैसे सुवर्णकेपात्रमें रक्त का पारणा किया और देवीका अष्टान्हिका उत्सव करके चक्रकी बताई हुई राहसे आगे चले। उत्तर-पूर्व दिशाके मध्य-ईशानकोण-की तरफ चलते हुए, अनुक्रमसे दोनों भरता के बीचों-बीच में सीमा रूप से स्थित, वैताड्य पर्वतके पास आये। उस पर्वतके दक्खन भागके ऊपर मानो कोई लल्या चौड़ा द्वीप हो, ऐसा पड़ाव महाराजने डाला। वहीं घर प्रहाराजने अष्टम तप किया, इतनेमें हो वताढ्यादि कुमार का आरन कापा। उसने अवधि ज्ञानले जान लिया कि; भरत- क्षेत्र बह पहला चक्रवत्तीं हुआ है : इसके बाद उसने चक्रवर्तीके पास आकर, आकाशमें ही ठहर कर कहा-"हे
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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