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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
करने वाले उस वाण को महाराज ने कान तक खींचा। कान तक आया हुआ वाण---"मैं क्या करूँ ?" इस तरह प्रार्थना करता हुआ सा दिखई देता था। चक्रवर्ती ने उसे वरदामपति की ओर छोड़ा। आकाश में प्रकाश करने वाले उस वाण को पर्वत, वन, सर्पने गरुड़ और समुद्र दूसरा बड़वानल समझकर भय से भीत हो गये ; अर्थात् पर्वतों ने उसे वन समझा, सर्पो ने उसे गरुड़ समझा और समुद्र ने दूसरा बड़वानल समझा और इस कारण डर गये। बारह योजन या छियानवे मील उलाँघ कर, वह वाण, उल्कापतन की तरह, वरदामपति की सभा में गिरा। शत्रुके भेजे हुए घात करने वाले मनुष्य की तरह, उस वाणको गिरा हुआ देख, वरदामपति कुपित हुआ और तूफानी समुद्रकी तरह, वह उद्भ्रान्त भ्रकुटियों में बल डालकर, उत्कठ वाणी से नीचे लिखे अनुसार बोला:
“पाँव से छूकर आज इस केशरी सिंहको किसने जगाया ? आज मृत्युने किस का पन्ना खोला ? कोढ़ीकी तरह अपने जीवन में आज किसे वैराग्य हुआ कि जिसने अपने साहस से मेरी सभा में यह वाण फेंका ? इस वाण के फैंकनेवाले को इस वाण से ही मारूँगा।" यह कहकर, और क्रोध में भरकर उसने वह वाण उठाया। मागधपति की तरह, वरदामपतिने भी वाण के ऊपर पूर्वोक्त अक्षर देखे। जिस तरह नागदमनी औषधियों से नाग शान्त होता है ; उसी तरह उन अक्षरों को पढ़कर वह तत्काल शान्त हो गया, और कहने लगाः-"अहो ! मैंडक जिस तरह