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आदिनाथ-चरित्र ३२०
प्रथम पर्व arrrrrrrrrrrruwww. हमवार-चौरस करते हैं, उसी तरह सेनाके आगे आगे चलने वाला सुषेण सेनापति दण्डरत्न से विषम या नाबराबर रास्तों को समान करता चलता था। सेनाके चलने से उड़ी हुई धूलिके कारण दुर्दिन बना हुआ आकाश रथ और हाथियों के ऊपर की पताका रूप बगलों से शोभित हो रहा था। चक्रबर्ती की सेना जिसका अन्त दिखाई नहीं देता था, अस्खलित गतिवाली गङ्गा दूसरी गङ्गा नदी सी मालुम होती थी। दिग्विजय उत्सब के लिये रथ चित्कारों से, घोड़े हिनहिनाने से और हाथी चिङ्गाड़ोंसे परस्पर शीघ्रता करते थे। सेनाके चलने से धूल उड़ती थी, तो भी सबारों के भाले उसके भीतर से चमकते थे, इससे वे ढकी हुई सूर्य की किरणों की हँसी करते हों ऐसा मालूम होता था। सामानिक देवों से घिरे हुए इन्द्रकी तरह मुकुटधारी भक्ति भावपूर्ण राजाओंसे घिरा हुआ राजकुञ्जर भरत बीचमें सुशोभित था। पहले दिन चक्र एक योजन या चारकोस चलकर खड़ा होगया। उस दिनसे उस प्रयाण के अनुमान से ही योजन का माप आरम्भ हुआ। हमेशा एक एक योजन के मान से प्रयाण करते हुए चार चार कोस रोज.चलते हुए और पड़ाब करते हुए महाराजा भरत कितने ही दिनोंमे गङ्गा नदीके दक्षिणी किनारे पर आ पहुंचे। महाराजा भरतने, गङ्गा नदीकी विशाल भूमिको भी, अपनी सेनाके जुदे जुदे पड़ावों से संकुचित करके, विश्राम किया। उस समय गङ्गाके किनारे की जमीन पर, हाथियोंके झरते हुए मदसे, बर्षा काल की तरह कीचड़ होगई। जिस तरह मेघ समुद्र से जल