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आदिनाथ- चरित्र
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प्रथम पर्व लेशमात्र सुख नहीं; तथापि जल जिस तरह नीची ज़मीन की ओर जाता है, उसी तरह प्राणी, अज्ञानवश, बारम्बार इस संसार की ओर जाते हैं । अतएव चेतनावाले भव्य जीवो! दूरसे सर्प को पोषण करने की तरह तुम अपने मनुष्य जन्म से संसार को पोषण मत करो । हे विवेकी पुरुषो ! इस संसार - निवास से पैदा होने वाले अनेकानेक दुःख और क्लेशोका बिचार करके, सव तरह से मोक्ष लाभ की चेष्टा करो । नरक के दुःखों के जैसा गर्भ में रहने का दुःख संसार की तरह मोक्षमें हरगिज़ नहीं होता । कुम्भीमें से खीचे हुए नारकीय जीवों की पीड़ा जैसी प्रसव वेदना मोक्षमें कदापि नहीं होती । बाहर और भीतर से लगे हुए तीरोंके तुल्यपीड़ा की कारण रूप आधि-व्याधि उसमें नहीं होतीं । यमराज की अग्रगामिनी दूती, सव तरहके तेजको चुराने वाली और पराधीनता को पैदा करने वाली वृद्धावस्था भी उसमें नहीं हैं । और नारकीय तिय्र्यञ्च, मनुष्य और देवताओं की तरह बारम्बारके भ्रमण का कारण रूप "मरण" भी मोक्षमें नहीं है । वहाँ तो महा आनन्द, अद्वैत और अव्यय सुख, शाश्वत रूप और केवलज्ञानरूप सूर्य से अखण्डित ज्योति है । निरन्तर ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी तीन उज्ज्वल रत्नोंका पालन करने वाले पुरुष ही मोक्ष लाभ कर सकते हैं । उनमें से जीवादिक तत्त्वों के संक्षेप से अथवा विस्तार से अवबोध को सम्यक् ज्ञान समझना चाहिये । मति, श्रुति अवधि, मनःपर्याय और केवल, इस तरह अन्वय- सहित भेदोंसे वह ज्ञान पोंच तरह के होते हैं। 1 उनमें से अवग्रह आदिक भेदों
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