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प्रथम पत्र
२६३ आदिनाथ चरित्र से जिसके नेत्र-कमल जाते रहे हैं, ऐसी पितामही-दादीको “यह आपका बड़ा पोता चरणकमलोंमें प्रणाम करता है।" यह कह कर भरतने प्रणाम किया। स्वामिनी मरुदेवाने पहले तो भरतको आशीर्वाद दिया और पीछे हृदयमें शोक न समाया हो, इस तरह वाणीका उद्गार बाहर निकाला।- “हे पौत्र भरत ! मेरा बेटा ऋषभ मुझे, तुझे, प्रथ्वीको पूजाकी और लक्ष्मीको तिनकेकी तरह अकेला छोढ़ कर चला गया, तोभी यह मरुदेवा न मरी। कहाँ तो मेरे पुत्रके मस्तक पर चन्द्रमाके आतप कान्ति जैसे छत्रका रहना और कहाँ सारे अंगोंको जलानेवाले सूर्यके तापका लगना! पहले तो वह लोलासे चलने वाले हाथी वगैरः जानवरोंपर सवार होकर फिरता था और आजकल पथिक-राहगीरकी तरह पैदल चलता है ! पहले मेरे उस पुत्र पर वारांगनायें चैवर ढोरती थीं;
और आजकल वह डांस और मच्छरोंके उपद्रव सहन करता हैं ! पहले वह देवताओंके लाये हुए दिव्य आहारोंका भोजन करता था और आजकल वह बिना भोजन जैसा भिक्षा-भोजन करता है ! वड़ी ऋद्धि वाला वह पहले रत्नमय सिंहासन पर बैठता था और आजकल गैंडेकी तरह बिना आसन रहता हैं। पहले वह पुररक्षक और शरीर-रक्षकोंसे घिरा हुआ नगरमें रहता था और आजकल वह सिंह प्रभृति हिंसक-जानवरोंके निवास स्थान-वनमें रहता है ! पहले वह कानोंमें अमृत रसायनरूप दिव्यांगनाओंका गाना सुनता था और आजकल वह उन्मत्त सर्पके कानमें सूईकी तरह फुकारें सुनता है। कहाँ उसकी पहलेकी स्थिति और कहाँ