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आदिनाथ चरित्र २६०
प्रथम पर्व जगत्पति ने समवसरण के पूर्वी दरवाजे से घुस कर चैत्य बृक्ष की प्रदक्षिणा की और इसके बादं तीर्थ को नमस्कार कर, सूर्य जिस तरह पूर्वाचलपर चढ़ता है, उसी तरह जगत्का मोहान्धकार नाश करने के लिये, प्रभु पूरव मुखवाले सिंहासन पर चढ़े। तब व्यन्तरोंने दूसरी तीन दिशाओं में, तीन सिंहासनों पर, प्रभुके तोन प्रतिविम्ब बनाये। देवता प्रभुके अँगूठे जैसा रुप बनानेकीभी सामर्थ्य नही रखते, तथापि जो प्रतिविम्ब बनाये, वे प्रभुके भावसे वैसे ही होगये। प्रभुके हरेक मस्तक के फिरने से शरीर की कान्तिके जो मण्डल-भामण्डल प्रकट हुए, उनके सामने सूर्यमण्डल खद्योत–पटवीज़ना या जुगनू सा मालूम होने लगा। प्रति शब्दों से चारों दिशाओंको शब्दायमान करती हुई-मेघवत् गम्भीर स्वर वाली दुन्दुभि आकाशमें बजने लगी । प्रभुके पास एक रत्नमय ध्वजा थी, वह मानो अपना एक हाथ ऊँचा करके यह कहती हुई शोभा दे रही थी, कि धर्ममें यह एक ही प्रभु है।
इन्द्र द्वारा भगवान की स्तुति । अब विमान पतियों की स्त्रियाँ पूरवी द्वार से घुसकर, तीन परिक्रमा दे, तीर्थङ्कर और तीर्थ को नमस्कार कर, पहले गढ़में, साधु साध्वीयों का स्थान छोड़, उनके स्थानके बीच अग्निकोण में खड़ी हो गई। भुवनपति, ज्योतिष्पति और व्यन्तरों की स्त्रियाँ दक्खन द्वारसे घुस, पहले वालियों की तरह नमस्कार प्रभृति कर . नैऋत कोणमें खड़ी हो गई। भुवन-पति, ज्योतिष्पति और