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आदिनाथ-चरित्र २८२
प्रथम पर्व सुनन्दानन्दन बाहुबलि ने प्रभु के चरण-चिन्हों की बन्दना की। इन चरण-चिन्हों को कोई उलांघ न सके, इस लिये उसने उनके ऊपर रत्नमय धर्म चक्र स्थापन करा दिया। चौसठ माईल के विस्तारवाला, बत्तीस मील ऊँचा और हज़ार आरे वाला वह धर्मचक्र मानो बिल्कुल सूर्य-बिम्ब ही हो-इस तरह सुशोभित होने लगा। त्रिलोकी नाथ के ज़बर्दस्त प्रभावसे, देवताओं से भी न हो सकने योग्य चक्र, बाहुबलिने तत्काल तैयार पाया। इसके बाद उसने सब जगहों से लाये हुए फूलों से उसकी पूजा की। इससे वह फुलों का ही पहाड़ हो-ऐसा दीखने लगा। नन्दीश्वर द्वीपमें जिस तरह इन्द्र उट्ठाई महोत्सव करता है ; उसी तरह उत्तम सङ्गीत
और नाटक आदि से अछाई महोत्सव किया। शेषमें पूजा करने वाले और रक्षा करनेवाले आदमी वहाँ छोड़ और सदा रहने का हुक्म दे तथा चक्र को नमस्कार कर बाहुवलि राजा अपनी नगरी को गया।
भगवान् को केवल ज्ञान । इस प्रकार हवा की तरह आजादी से रहने वाले, अस्खलित रीतिसे विहार करने वाले, विविध प्रकार के तपों में निष्ठा रखने वाले जुदे जुदे प्रकारके अभिग्रह करने में उद्युक्त; मौनव्रत धारण करने के कारण यवनाइव प्रभृति म्लेच्छ देशोंमें रहने वाले, अनार्य प्राणियों को भी दर्शन मात्र से भद्र या आर्य करनेवाले और उत्सर्ग तथा परिषह आदिको सहन करने