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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र युवराजने कहा-"ग्रन्थ अवलोकन या शास्त्र देखनेले जिस तरह बुद्धि पैदा होती है, उसी तरह भगवान के दर्शनोंसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। जिस तरह सेवक एक गाँवसे दूसरे गाँवको जाता है ; उसी तरह स्वर्ग और मृत्युलोकमें वारी वारीसे आठ भवों या जन्मों तक मैं प्रभुके साथ साथ रहा हूँ। इस भवसे तीसरे भवमें यानी अवसे पहले हुए तीसरे जन्ममें, विदेह क्षेत्रमें भगवानके पिता वनसेन नामक तीर्थङ्कर थे। उनसे प्रभुने दीक्षा ली प्रभुके बाद मैंने भी दीक्षा ली। उस जन्मकी बातें याद आने से मैं इन सब बातोंको जान गया। गत रात्रिमें मुझे, मेरे पिता और सुबुद्धि सार्थवाह को जो स्वप्न दीखे थे उसका फल मुझे प्रत्यक्षमिल गया। मैंने स्वप्नमें श्याम मेरु पर्वतको दूधसे धोया हुआ देखा था, उसी से आज इन प्रभुको जो तपस्यासे दुबले हो गये हैं, मैंने ईश्वरसे पारणा कराया व्यौर उससे ये शोभने लगे। मेरे पिताने उन्हें दुश्मनोंसे लड़ते हुए देखा था, मेरे पारणेकी सहायताले उन्होंने परीषह रूपी शत्रुओंका पराभव किया है। सुबुद्धि सार्थवाह या सेठने स्वप्नमें देखा था, कि सूर्यमण्डलसे हज़ारों किरणें गिरी ओर मैंने वे फिर लगादी ; इससे दिवाकर खूब सुन्दर मालूम होने लगा। उसका यह अर्थ है, कि सूर्य समान भगवान्का सहस्त्र किरणरूपी केवल ज्ञान भ्रष्ट हो गयाथा उसे मैंने आज पारणे से जोड़ दिया। और उससे भगवान् शोभने लगे ; अर्थात् प्रभुको आहारका अंतराय था, आहार बिना शरीर ठहर नहीं