________________
आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व विमान हो ऐसी सुदर्शना नामकी पालकी इन्द्रने प्रभुके लिए तैयार की। इन्द्र के हाथका सहारा देनेपर, लोकाग्र रूपी मन्दिरकी पहली सीढ़ीपर चढ़ते हों, इस तरह प्रभु पालकी पर चढ़े। पहले रोमाञ्चित हुए मनुष्योंने, फिर देवताओंने अपना मूर्त्तिमान पुण्यभार समझकर पालकी उठाई। उस समय सुर और असुरों द्वारा बजाये हुए मंगल बाजों ने अपने नादसे, पुस्करावर्त मेघकी तरह, दिशायें पूर्ण कर दी ; यानी उन बाजोंकी आवाज़ दशों दिशाओं में फैल गई ।मानों इस लोक और परलोककी मूर्तिमान निर्मलता हों-इस तरह दो चँवर प्रभुके दोनों ओर चमकते थे। बन्दीगण या भाटोंकी तरह देवता लोग मनुष्योंके कानोंकी तृप्ति करने वाला भगवान्का जयजयकार उच्च स्वरसे करने लगे। पालकीमें बठकर जाते हुए प्रभु उत्तम देवोंके विमानमें रहने वाली शाश्वत प्रतिमा जैसे शोभते थे। इस प्रकार भगवानको जाते हुए देखकर, शहरके लोग उनके पीछे इस तरह दौड़े, जिस तरह बालक पिताके पीछे दौड़ते हैं। कितने ही तो मेहको देखने वाले मोरकी तरह प्रभुको देखनेके लिये ऊँचे ऊँचे वृक्षोंकी डालियों पर चढ़ गये। खामीके दर्शनार्थ राह-किनारेके मकानोंके छज्जों और छतोंपर बैठे हुए लोगोंपर सूरजका प्रबल आतप पड़रहा था-तेज़ धूप उनके शरीरोंको जलाये डालती थी-पर वे उस कड़ी घामको चन्द्रमाकी शीतल चाँदनीके समान समझते थे। कितनोंहीको घोड़ों पर चढ़कर जाने तककी देर बर्दाश्त न होती थी, इसलिये वे घोड़ों पर न चढ़कर स्वयं घोड़े हों इस तरह राहमें दौड़ते थे। कितनेही