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आदिनाथ-चरित्र . २३८
प्रथम पर्व रण हो आया। इन पर विचार करने से उनके मोह का बाँध टूट गया और वे मन-ही-मन कहने लगे-“अरे इन विषय-भोगोंके फन्देमें फैले हुए, विषयों की चपेटमें आये हुए, विषयों से आक्लान्त हुए; अथवा उनके वशमें हुए लोंगों को धिक्कार है, कि जो जो अपने हितको बातको भी नहीं जानतेजो इतना भी नहीं जानते कि, हमारा हित-हमारी भलाई किस बात में है। अहो! इस संसार रुपी कूप में, अरघट्ट घटियन्त्र की तरह, प्राणी अपने अपने कर्मोंसे गमनागमन की क्रिया करते हैं। कूएमें जिस तरह रहँटके घड़े आते और जाते हैं, उसी तरह अपने पहले जन्म के कर्मों के फल भोगने के लिए प्राणी जनमते और मरते हैं, अपने कर्मानुसार ही कभी ऊँचे आते और कभी नीचे जाते हैं, कभी उन्नत अवस्था को और कभी अवनत अवस्थाको प्राप्त होते हैं , कभी सुखी होते और कभी दुखी होते हैं; पर मोहके कारण प्राणी इस बात को न समझ कर थोथे विषयोंमें लीन रहते हैं। मोहान्ध प्राणियोंके जन्म को धिक्कार हैं !! जिनका जन्म, सोने वाले की रातकी तरह, व्यर्थ बीता चला जाता है, यानी नींदमें सोनेवाले की रातका समय जिस तरह वृथा नष्ट होता है, उसी तरह मोहान्धप्राणियों का जीवन वृथा नष्ट होता है ।चूहा जिस तरह वृक्षका छेदन कर डालता है; उसी तरह राग द्वेष और मोह उद्यमशील प्राणियोंके धर्मको भी जड़से छेदन कर डालते हैं। अहो! मूढ़ लोग :बड़के वृक्ष की तरह क्रोधको बढ़ाते हैं, कि जो अपने बढ़ाने वाले को समूल ही खा जाता है।