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प्रथम पर्व
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आदिनाथ- चरित्र
किरणें पड़ने से वह मण्डप अमृत-सरके विलास का विस्तार करता था । कहीं-कहीं पद्मराग मणि की शिलाओं की किरणें फैलती थीं; इस कारण वह मण्डप कसूमी और बड़े बड़े दिव्य वस्त्रोंका सञ्चय करनेवाला जैसा मालूम होता था । कहीं-कहीं नीलम की पट्टियों की बहुत सी सुन्दर सुन्दर किरणे पड़ने से वह मानो फिरसे बोये हुए मांगलिक यवांकुर या जवारों जैसा मनोहर मालूम होता था । किसी-किसी स्थान में मरकतमणि से बने हुए फर्श से अखण्डित किरणें निकलती थीं, उनसे वह वहाँ लाये हुए हरे और मङ्गलमय बाँसों का भ्रम उत्पन्न करता था; अर्थात् हरे हरे बाँसोंका धोखा होता था । उस मण्डप में ऊपर की और सफेद दिव्य वस्त्रका चंदोवा था । उसके देखनेसे ऐसा मालूम होता था, गोया उसके मिषसे आकाश-गङ्गा तमाशा देखने को आई हो और छतके चारों ओर खम्भोंपर जो मोतियों की मालायें लटकाई गई थीं, वे आठों दिशाओंके हर्षके शस्य जैसी मालूम होती थीं । मण्डपके बीच में देवियोंने रतिके निधान रूप रत्न- कलश की आकाशतक ऊँची चार श्रेणियाँ स्थापन की थीं। उन चार श्रेणियोंके कलशोंको सहारा देनेवाले हरे बाँस जगत् को सहारा देनेवाले - स्वामी के वंश की वृद्धि की सूचना देते हुए शोभायमान थे ।
अप्सराओं की विवाह सम्बन्धी बात चीत ।
उस समय --- "हे रम्भा ! तू माला गूँथना आरम्भ कर । हे उर्व्वशी ! तू दूब तैयार कर । हे धृत्मनि ! वरको अर्घ्य देनेके लिए