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आदिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व की आवाज़ करते थे। कितने ही विदूषक या मसखरेकी तरह चार प्रकारके शब्द बोलते थे। कितने ही बन्दर जिस तरह वृक्षों की शाखाओंको हिलाते हैं, उस तरह अपने पाँवोंसे पर्वत-शिखर को कपाते हुए कूदते थे। कितने ही मानो रणसंग्राममें प्रतिज्ञा करनेको तैयार हुए योद्धा हों, इस तरह अपने हाथोंकी चपेटसे पृथ्वीके ऊपर ताड़ना करते थे। कितने ही मानो दाव जीते हों, इस तरह हल्ला मचाते थे। कितने ही बाजोंकी तरह अपने फूले हुए गालोंको बजाते थे। कितने ही नटकी तरह विकृत रूप बनाकर लोगोंको हँसाते थे। कितनेही आगे पीछे और अगल-बग़लमें गेंदकी तरह उछलते थे। स्त्रियाँ जिस तरह गोलाकार होकर रास करती हैं, उसी तरह कितने ही गोलाकार फिरते हुए रासकी तरह गाते और मनोहर नाच करते थे। कितनेही आगकी तरह प्रकाश करते थे। कितने ही सूर्यकी तरह तपते थे। कितने ही मेघकी तरह गरजना करते थे। कितने ही चपलाकी तरह चमकते थे। कितनेही नाक तक खूब खाये हुए विद्यार्थीकी तरह दिखाव करते थे। स्वामीकी प्राप्तिसे हुए उस आनन्दको कौन छिपा सकता था ? इस तरह देवता अनेक तरहके आनन्दके विचार कर रहे थे, उस समय अच्युतेन्द्रने प्रभुके विलेपन किया। उसने पारिजात प्रभृति के खिले हुए फूलोंसे प्रभुकी भक्ति-पूर्वक पूजाकी और ज़रा पीछे हटकर भक्तिसे नम्र होकर शिष्यकी तरह भगवान् की वन्दना की।