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________________ आदिनाथ-चरित्र १८४ प्रथम पर्व हाथ से पीटते हैं ; उसी तरह उद्घोष करने के लिए अपने मृदङ्ग नामक बाजे को पीटने लगे ; यानी मृदङ्ग बजाने लगे। कितने ही वहाँ आये हुए देवता, असंख्य सूरज और .चन्द्रमा की कान्ति को हरनेवाली सोने और चांदी की झाँझों को बजाने लगे। कितने ही देवता मानो मुंह में अमृतभरा हो, इस तरह गाल फुलाकर शंख बजाने लगे। इस तरह देवताओं के बजाये हुए विचित्र प्रकार के बाजों की प्रतिध्वनि से मानो आकाश भी, बिना बाजा बजानेवाले के, एक बाजे-जैसा होगया। चारण मुनि-'हे जगन्नाथ ! हे सिद्धिगामि ! हे कृपासागर ! हे धर्मप्रवर्तक ! आपकी जय हो, आपका कल्याण हो'- इस तरहके ध्रुपद, उत्साह, स्कन्धक, गलित और वस्तुवदन-प्रभृति पद्य और मनोहर गद्य से स्तुति करने के बाद अपने परिवार के देवताओं के साथ अव्युतेन्द्र भूवनभर्ता के ऊपर धीरे-धीरे कलशों का जल डालने लगे। भगवान् के सिरपर जलधाराकी वृष्टि करनेवाले वे कलश मेरु पर्वत की चोटीपर बरसनेवाले मेघों की तरह शोभा देने लगे। भगवान् के मस्तक के दोनों तरफ देवताओं द्वारा झुकाये हुए वे कलश माणिक्य-निर्मित मुकुट की शोभा को धारण करने लगे। आठ-आठ मील के मुंह वाले घडोंमें से गिरनेवाली जल-धाराय, पर्वत की गुहाओं में से निकलनेवाले झरनों के समान शोभा देने लगीं। प्रभु के मुकुटभाग से उछल-उछलकर चारों तरफ गिरनेवाले जल के छीटें-धर्मरूपी वृक्ष के अङ्कुर के समान शोभने लगे। प्रभु
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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