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आदिनाथ-चरित्र १७६
प्रथम पर्व बाहुदण्ड के समान दो रूपों से, दो सुन्दर चँवर धारण किये
और एक रूप से मानो मुख्य द्वारपाल हो इस तरह वज्र धारण करके भगवान् के सामने खड़ा होगया। जय-जय शब्दों से आकाश को एक शब्दमय करनेवाले देवताओं से घिरा हुआ और आकाश जैसे निर्मल चित्तवाला इन्द्र पाँच रूपोंसे आकाश-मागे से चला। प्यासे पथिकों की नज़र जिस तरह अमृत सरोवर पर पड़ती है ; उसी तरह उत्कंठित देवताओं की दृष्टि भगवान् के उस अद्भुत रूपपर पड़ी। भगवान के उस अद्भुत रूप को देखने के लिए, आगे चलनेवाले देवता अपने पिछले भाग में नेत्रों के होने की इच्छा करते थे ; . यानी वे चाहते थे, कि अगर हमारे सिर के पीछे आँखें होती तो हम भगवान् के अद्धत मनमोहन रूप का दर्शन कर सकते। अगल बगल चलनेवाले देवताओं की स्वामी के दर्शनों से तृप्ति नहीं हुई, इसलिये मानो उनके नेत्र स्तम्भित हो गये हों, इस तरह अपने नेत्रों को दूसरी ओर नहीं फेर सके। पीछे वाले देवता भगवान के दर्शनों की इच्छा से आगे आना चाहते थे, इसलिए वे उल्लंघन करने में अपने मित्र और स्वामियों की पर्वा नहीं करते थे। इस के बाद देवपति इन्द्र, हृदय में रक्खे हों इस तरह भगवान् को अपने हृदय से लगाकर मेरु पर्वत पर गया। यहाँ पाण्डुक वनमें, दक्खन चूलिका पर, अतिपाण्डुक बला शिलापर, अर्हन्त स्नात्र के योग्य सिंहासनपर, पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र, हर्ष के साथ, प्रभु को अपनी गोद में लेकर बैठा।