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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
को खबर दी तब इन्द्र ने तत्काल उत्तर वैकिय रूप धारण किया; इच्छानुसार रूप बनाना, देवताओंका स्वभाव है। 1
सौधर्मेन्द्र का विमान पर चढ़ना ।
इसके बाद मानों दिशाओं की लक्ष्मीही हों ऐसी आठ पटरानियों सहित, गन्धर्व्व और नटों का तमाशा देखते हुए, इन्द्रने सिंहासन की प्रदक्षिणा की और पूर्व ओर की सीढ़ियों की राइसे, अपनी मान-प्रतिष्ठा या अपने उच्चपद के योग्य उन्नत सिंहासन पर चढ़ गया। उसके अंग के प्रतिबिम्ब या अक्स के माणिक की दीवारों पर पड़ने से, उसके सहस्रों अंग दीखने लगे। वह पूरव तरफ मुँह करके अपने आसनपर जा बैठा । इसके पीछे, उसके दूसरे रूप के समान सामानिक देव, उत्तर ओर की सीढ़ियों से चढ़कर अपने-अपने आसनों पर जा बैठे; तब और देवता भी दक्खन तरफ की सीढ़ियों से बढ़-चढ़ कर अपने-अपने आसनोंपर जा बैठे; क्योंकि स्वामी के पास आसन का उल्लङ्घन नहीं होता । सिंहासन पर बैठे हुए इन्द्र के सामने दर्पण प्रभृति आठों मांगलिक पदार्थ शोभा देरहे थे । सचीपति के सिर पर चन्द्रमा के समान छत्र सुशोभित था। चलते-फिरते हंसों की तरह दोनों तरफ चँवर ढुल रहे थे । झरनों से पर्वत शोभा देता है, उसी तरह पताकाओं से सुशोभित आठ हज़ार मील ऊँचा एक 'इन्द्रध्वज' विमान के आगे फरक रहा था। उस समय, नदियों से घिरनेपर जिस तरह समुद्र शोभता है उसी तरह, सामानिक आदि देव