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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र कर राजा वज्रसेन से विज्ञप्ति की-स्वामिन् ! धर्मतीर्थ प्रवर्त्ताओ, इस के बाद वज्रसेन राजा ने वज्र-जैसे पराक्रमी वज्रनाभ को गद्दीपर बिठाया और मेघ जिस तरह जल से पृथ्वी को तृप्त करते हैं ; उसी तरह उसने सांवत्सरिक दान से पृथ्वी को तृप्त कर दिया। देव, असुर और मनुष्यों के स्वामियों ने राजा वज्र सेन का निर्गमोत्सव किया और राजा ने, चन्द्रमा के आकाश को अलंकृत करने की तरह, उद्यान को अलंकृत किया; अर्थात् उस के राज्य छोड़कर जाने का उत्सव देवराज, अराराज और नृपालों ने किया और राजा वज्रसेन ने, नगर के बाहर बगीचे में डेरा डाला और वहाँ ही उन स्वयंबुद्ध भगवान् ने दीक्षा ली। उसी समय उन को मनःपर्याय ज्ञान उत्पन्न हुआ। पीछे वह आत्म-स्वभाव में लीन होनेवाले, समता रूप धन के धनी, ममताहीन, निष्परिग्रही और नाना प्रकार के अभिग्रहों को धारण करनेवाले प्रभु पृथ्वीपर विहार करने लगे अर्थात् भूमण्डल में परिभ्रमण करने लगे। इधर वज्रनाभ ने अपने प्रत्येक भाई को अलग-अलग देश दे दिये और लोकपालों से जिस तरह इन्द्र सोहता है; उसी तरह वह भी रोज़ सेवा में उपस्थित रहनेवाले चारों भाइयों से सोहने लगा। सूर्य के सारथी अरुण की तरह, सुयशा उस का सारथी हुआ। महारथी पुरुषों को सारथी भी अपने योग्य ही नियुक्त करना चाहिये।