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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पव
थे। समय बे-समय अपथ्य भोजन करने से, उन्हें कृमि-कुष्ट रोग हो गया था। यद्यपि उन के सारे शरीर में कृमिकुष्ट फैल गया था- उनके सारे अङ्गमें कोढ़ चूता था और कीड़े किलबिलाते थे ; तथापि वे किसी से दवा न मांगते थे; क्योंकि मोक्ष-कामी लोग शरीर की उतनी पर्वा नहीं करते-वे शरीर की ओर से लापर्वा ही रहते हैं वे शरीर को कोई चीज़ समझते ही नहीं।
मुनिचिकित्सा की तैयारी। *गोमुत्रिका के विधानसे, घर-घर घूमते हुए उन साधु का, छठ के पारणे के दिन, उन्होंने अपने दरवाजे पर आते देखा। उस समय, जगत् के अद्वितीय वैद्य-सदृश जीवानन्द से महीधर कुमारने किसी कदर दिल्लगी के साथ कहा-'तुम रोग-परीक्षा में निपुण हो, औषधितत्वज्ञ हो और चिकित्सा-कर्म में भी दक्ष हो; परन्तु तुम में दया का अभाव है। जिस तरह वेश्या धनहीन को नज़र उठाकर भी नहीं देखती ; उसी तरह तुम भी निरन्तर स्तुति और प्रार्थना करनेवालों के सामने भी नहीं देखते। परन्तु विवेकी और विचारशील पुरुष को एक-मात्र धन का लोभी होना
साधु जब आहार ग्रहण करने के लिए गृहस्थों के घर जाय, तब उसे गोमूत्र के श्राकार से जाना चाहिये, शास्त्रका यही विधान है। अगर वह सीधी पंक्तिमें जायगा, तो सम्भव है, बराबर के घर वाले, मालूम न होने से, साधुके भिज्ञा दान की तैयारी न कर सकें।