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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
में लगा हुआ हूँ। वहाँ से दूसरे तीर्थों में जाता हुआ, यहाँ मैं' च्यव गया हूँ; यानी मेरा दूसरे लोक के लिए पतन हो गया है, - मैंने अन्य लोक में जाने के लिए अपना पहला और पुराना शरीर त्याग दिया है। अकेली, दीन-दुखी और सहाय -हीन अवस्था में यह स्वयंप्रभा यहाँ आई है, इस को मैं मानता हूँ और यही मेरी पूर्व - जन्म की प्रिया है । वह स्त्री यही है और उसने ही इसे जातिस्मरण से लिखा है, – यह मैं जानता हूँ; क्योंकि बिना, अनुभव के कोई भी आदमी इन सब बातों को जान नहीं सकता। चित्र-पट में सब स्थान दिखलाकर, वह ऐसा कह ही रहा था, कि इतने में पण्डिता बोली- 'कुमार ! आप का कहना सच है ।' यह कहकर वह सीधी श्रीमती के पास आई और हृदय को शल्य-रहित करने में औषधि - समान वह आख्यान उसने श्रीमती को कह सुनाया; अर्थात् दिल की खटक निकालने वाली वे सब बातें उसने उससे कह दीं । मेघ के शब्दों से विद्दूर की ज़मीन जिस तरह रत्नों से अङ्कुरित होती है; उसी तरह भी अपने प्यारे पतिका वृत्तान्त सुनकर रोमाञ्चित हुई। पीछे उसने पण्डिता के द्वारा अपने पिता को इस बात की ख़बर स्वतन्त्र न रहना कुलस्त्रियों का स्वाभाविक धर्म है । मेघ की वाणी से जिस तरह मोर प्रसन्न होता है; उसी तरह पडिता की बातों से वज्रसेन प्रसन्न हुआ और शीघ्र ही वज्रजंघ कुमार को बुलवाकर उन से कहा'मेरी बेटी श्रीमती पूर्वजन्म की तरह इस जन्म में भी आपकी गृहिणी हो ।' वज्रजंघ ने यह बात मंजूर कर ली, तब वज्रसेन
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