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________________ आदिनाथ-चरित्र ६० प्रथम पव ललितांग देव का च्यवन। उसने कहा,-"प्यारी! तैंने कुछ भी अपराध नहीं किया है। हे सुन्दर भौंहोंवाली ! अपराध तो मैंने ही किया है, जो पूर्व जन्म में ओछा तप किया। पूर्व जन्म में, मैं विद्याधरों का राजा था। उस समय, मैं भोग-कार्य में जाग्रत और धर्म-कार्य में प्रमादी था। मेरे सौभाग्य से प्रेरित होकर, स्वयंबुद्ध नामक मन्त्री ने आयु का शेषांश बाकी रहने पर मुझे जैनधर्म का बोध कराया और मैंने उसे स्वीकार किया। उस ज़रा सी मुद्दत में किये हुए धर्म के प्रभाव से, मैं अबतक श्रीप्रभ विमान का स्वामी रहा ; परन्तु अब मेरा च्यवन होगा- मैं इस पदपर न रहूंगा : क्योंकि अलभ्य वस्तु किसी को भी मिल नहीं सकती।" वह इस तरह बातें कर ही रहा था कि, इसी बीच में दृढ़धर्मा नामक देव उन के पास आकर कहने लगा :-"आज ईशान कल्पके स्वामी नन्दीश्वरादिक द्वीप में जिनेन्द्र प्रतिमा की पूजा करने को जानेवाले हैं ; इसलिये आप भी उन की आज्ञा से चलिये।" यह बात सुनते ही-'अहो! स्वामी ने हुक्म भी समयोचित ही दिया है-' कहते हुए वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपनी प्यारी सहित वहाँको चला। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर, उसने शाश्वती अर्हत्प्रतिमा की पूजा की और खुशी में अपने च्यवनकाल की बात को भी भूल गया। इस के बाद स्वस्थ चित्तवाला वह देव दूसरे तीर्थों को जा रहा था, कि इसी बीच में आयुष्य
SR No.010029
Book TitleAadinath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPratapmuni
PublisherKashinath Jain Calcutta
Publication Year
Total Pages588
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Mythology
File Size21 MB
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