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आदिनाथ- चरित्र
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प्रथम पर्व
इस तरह पूर्व जन्म
पहले जन्म में, मैं विद्याधरों का स्वामी था। मुझे धर्म मित्र जैसे स्वयंबुद्ध मंत्री ने जैनेन्द्र धर्म का बोध कराया था । उससे दीक्षा लेकर मैंने अनशन किया था। उसी से मुझे यह फल मिला है । अहो ! धर्म का अचिन्त्य वैभव है।' की बातों को यादकर और वहाँ से तत्काल उठकर, उस देवने छड़ीदार के हाथ का सहारा लेकर सिंहासन को अलंकृत किया। उसके सिंहासनारूढ़ होते ही जयध्वनि हुई और देवताओं ने अभिषेक किया। चंवर डोलने लगे । गन्धर्व मधुर और मंगल गान गाने लगे। इसके बाद, भक्तिभाव पूर्ण ललिताङ्ग देव ने वहाँ से उठकर, चैत्य में जाकर, शाश्वती अर्हत् प्रतिमा की पूजा की और देवताओं के तीन ग्रामके उद्गार से मधुर और मंगलमय गायनों के साथ, विविध स्तोत्रों से जिनेश्वर की स्तुति की। पीछे ज्ञानदीपक पुस्तकें पढ़ी और मंडप के खंभे पर रक्खी हुई अरिहन्त की अस्थि - हड्डी की अर्चना की ।
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स्वयंप्रभा देवी की रूप वर्णना
स्वयंप्रभा का देहान्त ।
ललितांग देव का विलाप ।
इसके बाद, पूर्णिमा के चन्द्र-जैसे दिव्य छात्र को धारण कर