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ऋषिपंचमीव्रतकथा ॥ भविकदत्त मातासे बात । कहो वनिजको पठवततात ॥ बन्धुदतपुनि संग सुचले। औरभिलोगसंग,भले ॥ १०॥ सुनमाता तबधधकोहियो । तुम बिछुड़े सुत कैसे जियो ॥ तुमगृह मंडनकुलआधार । तुमबिनसबसूनो संसार ॥ ११ ॥ अरुतुम संग सोतिकापूत । सो व्यसनी सुनियतहै धूर्त ॥ जोहठ पुत्र वणिजकोजाउ । तोधूर्तकोमतपतिआउ ॥ १२ ॥ नदी नखी जो नंगी जीव । अरु दुर्जन करशस्त्रसदीय ॥ अरुवेश्याकेघरमेबास । तिनकासुतमतकरोविश्वास ॥१३॥ यह माताकी सुनि कर यात। रोम २ आनन्दोगात।। चलत शकुन सवनीकेनये । चलतरसागर तट गये ॥ १४ ॥ तहां भरे मोहन जो अपार । वस्तुगिणत बाढ़े विस्तार ॥ गये तिलक पहनके तीर । जामें कोई जाय न धीर ॥१५॥ भविकदत्त चितकीनोंचाव । गयो नगर में कर उच्छाव ॥ शन्य नगर ना कोई वसै । वस्तु बजारहजारों लसै ॥ १६ ॥ निर्भयभयो गयो सो तहां । चैत्यालय जिनवर को जहां। वंदेचंद्रप्रभजिनराज । सुफलजन्मतिनमानों आज ॥१७॥ बन्धुदत्त ने कीनों द्रोह । यान चलाये छोड़ो मोह ॥ कुछयक दिनमें पहुंचेतहां । रत्न द्वीपपहन है जहां ॥ १८ ॥ भविकदत्तफिरआयोथान । शून्य देख मन भयो मलान । मातावचनसुमरमनधीर । फिर आयो जिनवरकेतीर ॥१॥ इतनी बात यहां ही रही। अब यह कथा मातपर गई। पत्र मोहकी व्यापीपोर । कमल श्रीमत घरे न धीर ॥२०॥ क्षण २ दीर्घले निश्वास । भूली सुधिबुधि भूख न प्यास ॥ संगसखीजो स्योनीलई । अवधि ज्ञानमुनिवरढिंगगई ॥२९॥ वन्दि मुनीश्वर पूछे सोई । जासे पुत्र मिलन अब होई ॥
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