SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सिद्ध भगवान् [ ५७ योजन ऊँचे हैं; जिनमें एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे छोड़कर, बीच के एक हजार योजन के पोलार में नारकी जीव रहते हैं । प्रथम नरक के नीचे अलग-अलग तीन-तीन वलया (धी चूड़ी जैसे ) हैं । यथा - पहला वलयार्ध घनोदधि ( जमे पानी ) का है और २००० योजन का है । उसके नीचे दुसरा वलयार्ध घनवात का है जो घनोदधि से असंख्यातगुना अधिक है। उसके नीचा तीसरा वलयार्थ तनुवात का उससे भी असंख्यातगुना अधिक है । उसके नीचे असंख्यातगुना आकाश है । जैसे पारे पर पत्थर और हवा पर बेलून (गुब्बारा ) ठहरता है, उसी प्रकार इन तीनों वलया के ऊपर सातों नरक ठहरे हैं । पहला नरक अर्थात् रत्नप्रभा भूमि काले वर्ण वाले भयानक रत्नों से व्याप्त है । दूसरी शर्कराप्रभा भूमि भाले छ आदि शस्त्रों से भी अधिक तीक्ष्ण कंकरों से व्याप्त है। तीसरी बालुकाप्रभा भूमि भड़भूजे के भाड़ की रेती से भी अधिक उष्ण रेती से व्याप्त है। चौथी पंकप्रभा भूमि रक्त मांस और रसी के कीचड़ से व्याप्त है से भी अधिक खारे धुएँ से व्याप्त 1 । पाँचवीं धूम्रप्रभा नरक राई - मिर्च के धुएँ है 1 । छठी तमः प्रभा भूमि घोर अन्धकार से व्याप्त है । नारकावास की भींतों में ऊपर बिल के आकार के योनि स्थान ( नारकियों के उत्पन्न होने के स्थान ) बने हुए हैं। पापी प्राणी उन स्थानों में के मनुष्य के एक दिन से लेकर सात दिन तक के जन्मे हुए बालक के बालाम, ऐसे बारीक करके कि तीक्ष्ण शस्त्र से भी उसके दो टुकड़े न हो सके, ठूंस-ठूंस कर भर दिये जाएँ। ऐसे ठूंस दिये जाएँ कि चक्रवर्ती की सेना उनके ऊपर से निकले तो भी दबें नहीं। फिर उस गड़ में से सौ-सौ वर्ष बीत जाने पर एक-एक बालाय निकाला जाय । इस प्रकार निकालतेनिकालते जितने समय सारा गड़हा खाली हो जाय - एक भी बाल उसमें शेष न रहे, उतने वर्षों को एक पल्योपम कहते हैं और दस कोड़ाकोड़ी (१००००००००००००००) पल्योपम का एक सागरोपम कहलाता है । * सूयगडोग सूत्र के पाँचवें अध्ययन में कहा है- 'अहो सिरो कट्टु उपेइ दुग्गं अर्थात् नारकी जीव नीचा सिर करके गिरते हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र के श्रस्रवद्वार में भी ऐसा ही कथन है । इससे जान पड़ता है कि नारकी जीवों की उत्पत्ति का स्थान नारकावासों के ऊपर बिलों में होना चाहिए । इस विषय का खुलासा और विस्तृत कथन दिगम्बर आम्नाय के ग्रन्थों में है । कोई-कोई कुम्भियों में उत्पत्ति-स्थान मानते हैं।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy