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________________ ७६ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश औषध की वस्तु । (१४) भेषज-शतपाक आदि तेल, चूर्ण, गोली आदि बनी हुई दवा। इन वस्तुओं में से जिन-जिन का योग हो, उनके लिए आमंत्रण करे, देते समय गड़बड़ न करे, घबरावे नहीं । साधु के पूछने पर जो बात सच हो सो कह देवे, झूठ न बोले । शुद्ध (सूझता) लेने वाले को अशुद्ध (असूझता) न देवे; क्योंकि असूझता देने से हीन आयु का बंध होता है । अतएव जैसा हो वैसा ही कह देवे । अगर साधु कहें कि-'हे आयुष्मन् गृहस्थ ! यह हमें नहीं कल्पता है' तब गृहस्थ अपना दानान्तराय कर्म का उदय समझ कर पश्चात्ताप करे और उस दिन के लिए किसी प्रकार का प्रत्याख्यान करे। हाँ, अगर सच-सच कह देने पर भी कोई रस-लम्पट प्रमादी साधु उस असूझते आहार को ही ग्रहण कर लेवे तो उसके लिए गृहस्थ दोष का पात्र नहीं है, क्योंकि गृहस्थ का द्वार तो दान के लिए सदा खुला रहता है। साधु के पात्र में जितना आहार जायगा, संसार के ताप से उतना ही बचाव हुआ समझना चाहिए। आहार आदि ग्रहण करने के पश्चात जब साधु लौटें तो कम से कम सात-आठ पाँव पहुंचा कर नमस्कार करके कहे-महाराज, आज अच्छा लाभ दिया है, वार-वार ऐसी ही कृपा किया कीजिए ।x कदाचित् साधु-साध्वी का योग न मिले तो विचारना चाहिए कि जहाँ साधु-साध्वी विराजमान हैं वह नगर-ग्राम धन्य हैं और वे गृहस्थ भी धन्य हैं जो उन्हें १४ प्रकार का दान देते हैं । बारह व्रत के पाँच अतिचार (१-२) सचित्तनिक्षेप और सचित्तपिधान-साधु सचिव वस्तु को - ऊपर रक्खी हुई तथा सचित्त से ढंकी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करते हैं । x जिसके हाथ से दान दिया जाता है, वहीं दान के फल का अधिकारी होता है। देय वस्तु जिसकी होती है उसे धर्मदलाली का फल मिलता है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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