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________________ ७६४ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश करें। अज्ञ लोगों की देखा-देखी न करें । शुद्ध पौषध के प्रभाव में प्रानन्द और कामदेव आदि श्रावक एकमवावतारी हुए हैं। वारहवाँ व्रत-अतिथिसंविभाग जो भिक्षा के लिए सदैव नहीं आता, बारी बाँध कर भी नहीं आता, तथा आमन्त्रण देने से भी नहीं आता, अर्थात् जिसके आने की कोई तिथि नियत न हो उसे 'अतिथि' कहते हैं * । यह अतिथि विषय-कषाय का शमन करने वाले होने के कारण 'श्रमण' भी कहलाते हैं । द्रव्य से अकिंचन (परिग्रहहीन) और भाव से कर्मग्रंथि का भेदन करने वाले होने के कारण 'निर्ग्रन्थ' भी कहलाते हैं । ऐसे श्रमण, निम्रन्थ अतिथि (साधु) के लिए सदैव प्रासुक-अचित्त और एषणीय भोजनादिक का संविभाय करे । अर्थात् प्राप्त भोजनादि में से कुछ भाग देने का मनोरथ श्रावक प्रतिदिन करे । साधु का योग मिलने पर भक्ति के साथ दान करे । यह उत्कृष्ट अतिथिसंविभाग व्रत है । ___ गृहस्थ के घर में जो भोजन निष्पन्न हुआ है, उसमें समस्त कुटुम्ब का, जो उस घर के चौके में भोजन करते हैं, हिस्सा होता है । किन्तु भोजन करते समय थाली में जो भोजन आ जाता है, उसमें किसी दूसरे का हिस्सा नहीं रहता अर्थात् उस भोजन का एक मात्र स्वामी वही है । अतएव अपने हिस्से के भोजनादि में से दान देकर दान के महालाभ को प्राप्त करने का अभिलाषी श्रावक भोजन करने बैठते समय पानी आदि सचित्त वस्तु का संघट्टा तिथिः पर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं तं विजानीयाच्छेषमभ्यागतं विदुः ॥ अर्थात्-जिस महात्मा ने तिथि, पर्व, उत्सव आदि का त्याग कर दिया है, अर्थात् जिसने फलो दिन फल के घर जाना, ऐसा नियम नहीं बाँध रक्खा है, वह अतिथि कहलाता है। शेष भिक्षुक-अभ्यागत कहलाते हैं ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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