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® जैन-तत्त्व प्रकाश
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ग्यारहवां व्रत-पौषध
सम्यग्ज्ञान आदि रत्नत्रय का पोषक तथा निज गुणों में रमण करा कर स्वात्मा का पोषक होने से और छहों कायों की रक्षा का कारण होने से परमात्मा का भी पोषक होने से यह व्रत पौषध कहलाता है ।
पौषध करने की विधि इस प्रकार है-जिस दिन पौषध व्रत करना हो, उससे पूर्व के दिन 'एगभत्तं च भोयणं' अर्थात् सिर्फ एक बार भोजन करे, अहोरात्रि अखण्डित ब्रह्मचर्य का पालन करे। दूसरे दिन प्रातःकाल में पौषधशाला या उपाश्रय आदि धर्मस्थानक में, या घर के ऐसे एकान्त में, जहाँ मृहकार्य दृष्टिगोचर न होते हों, जहाँ धान्य, कच्चा पानी, हरित काय, चिउँटी का बिल या कीड़ी-मकोड़े न हों, जहाँ स्त्री, पशु, नपुंसक न रहते हों और जहाँ पर्याप्त प्रकाश पाता हो, (ऐसे स्थान में) एक मुहूर्त रात्रि शेष रहने पर रायसी प्रतिक्रमण करे । सूर्योदय होते ही श्रोढ़ने-बिछाने के वस्त्रों की प्रतिलेखना करे, ७२ हाथ से अधिक वस्त्र न रक्खे, फिर रजोहरण आदि से भूमिका का प्रमार्जन करे, फिर जिसमें चिउँटी आदि जन्तु प्रवेश न कर सकें इस प्रकार आसन जमा कर, मुंह पर मुंहपत्ती बाँधे, फिर इरियावहिया तथा तस्सुसरी का पाठ सम्पूर्ण बोल कर इरियावहिया का कायोत्सर्ग करे । नमोकारमन्त्र के उच्चारण के साथ काउस्सग्ग पार कर लोगस्स का पाठ बोले । फिर कहे
पडिक्कमामि-निवृत्त होता हूँ। चउकालं-दिन के तथा रात्रि के प्रथम और अन्तिम चार पहर में । सज्झायस्स-शास्त्र का स्वाध्याय । अकरणयाए-नहीं करने के कारण । उभो कालं-दिन के पहले और अन्तिम प्रहर में । भण्डोवगरण- वस्त्र, रजोहरण मात्रियादि का ।