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________________ * सागारधर्म श्रावकाचार [ ७७५ पार में कुशाग्र पर वे उतना अन्न और अंजलि में वे उतना पानी ग्रहण करके, मासखमण की तपस्या करोड़ पूर्व तक करने वाले अज्ञान तपस्वी के तप का फल, सम्यक्त्वी श्रावक की एक सामायिक के फल के सोलहवें भाग की तुलना भी नहीं कर सकता है ! सामायिक का फल इतना महान् है । अतएव अगर अधिक न बन सके तो सदैव प्रातः काल में, मध्याह्नकाल में और संध्याकाल में, इस प्रकार त्रिकाल सामायिक अवश्य करनी चाहिए | इतना भी शक्य न हो तो प्रातःकाल और सायंकाल दो बार सामायिक अवश्य ही करे। कहावत है- 'आठ पहर काज की तो दो घड़ी जिनराज की ।' आठों पहर संसार के धन्धे में रचे-पचे रहने वाले को श्रात्मा के कल्याण के लिए भी कुछ समय लगाना ही चाहिए । सामायिकव्रत का सम्यक् प्रकार से आराधन करने से चित्तसमाधि की प्राप्ति होती है । श्रात्मा की अनन्त शक्ति प्रकट होती है। राग-द्वेष रूप दुर्जय शत्रुओं का विनाश होता है। ज्ञानादि रत्नत्रय का लाभ होता है । जन्म, जरा, मरण आदि दुःखों का अन्त होता है और स्वर्ग के तथा अन्त में मोक्ष के अनन्त सुख की प्राप्ति होती है । दसवाँ व्रत - देशावका शिक पूर्वोक्त छठे व्रत में दिशाओं का और सातवें व्रत में उपभोग - परिभोग का जो परिमाण किया जाता है, वह यावज्जीवन के लिए किया जाता है, किन्तु उतने कोस जाने का और भोगोपभोग भोगने का सदैव काम नहीं पड़ता है और विरति उतने की निरन्तर लगती रहती है । इस कारण आत्मार्थी सुज्ञ श्रावक अपनी आत्मा को पाप से बचाने के लिए सदैव प्रातः काल में एक घड़ी, दो घड़ी, एक-दो पहर अथवा एक दिन-रात के लिए या पक्ष- मास के लिए, इस तरह जितने समय तक उसकी सुविधा और इच्छा हो, उतने काल तक के लिए जीवन पर्यन्त की मर्यादा में से भी कमी करने का नियम ले लेता है। जैसे—कोई घर से बाहर जाकर, कोई ग्राम से बाहर
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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