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________________ ५० ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश आत्मा स्वभावतः ऊर्ध्व गति-शील होने पर भी ऊर्ध्व गति नहीं कर पाता। जैसे तूबा स्वभाव से जल के ऊपर तैरता है किन्तु मृत्तिका का लेप कर देने पर भारी हो जाने के कारण वह जल के ऊपर नहीं आ सकता। किन्तु ज्यों ही मृत्तिका का लेप हटता है त्यों ही तूंबा ऊपर आता है। इसी प्रकार आत्मा जब कमलेप से मुक्त होता है तब वह अग्नि की शिखा की तरह ऊर्ध्वगमन करता है । ऊध्र्वगमन करके एक ही समय में वह लोकाकाश के अन्तिम छोर तक जा पहुँचता है। वहाँ से आगे अर्थात् अलोकाकाश में गति का निमित्त कारण धर्मास्तिकाय विद्यमान नहीं है अतः वहीं मुक्तात्मा की गति रुक जाती है। इसी कारण यह कहा गया है कि सिद्ध भगवान लोक के अग्रभाग में स्थित हैं और अलोक से लगकर रुक गये हैं। कई लोग कहते हैं कि मुक्तात्मा अनन्त काल तक ऊपर ही ऊपर जाता रहता है। वह निरन्तर अविश्रान्त गति से अनन्त आकाश में सदैव ऊपर गमन करता रहता है। कभी किसी काल में ठहरता नहीं। पूर्वोक्त कथन से उनकी मान्यता का निराकरण हो जाता है । पूर्वोक्त कथन से स्वाभाविक ही अन्तःकरण में यह प्रश्न उद्भूत होता है कि जिस लोक के अग्रभाग में सिद्ध भगवान् स्थित हैं, वह लोक क्या है ? उसका स्वरूप और आकार आदि कैसा है ? इन प्रश्नों का उत्तर आगे दिया जाता है। लोक और अलोक लोक शब्द 'लुक्' धातु से बना है। लोक्यते इति लोकः, अर्थात् आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्य दिखाई देते हैं, वह लोक कहलाता है। इसके विपरीत जहाँ आकाश के अतिरिक्त और कोई भी द्रव्य दिखाई नहीं देता-शुद्ध आकाश ही आकाश है-वह अलोकाकाश है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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