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सिह भगवान्
सिद्धि-स्थान
सिवमयलमरुयमणंतमस्खयमव्वाबाह
मपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं ॥ इस पाठ में सिद्धि गति या सिद्ध भगवान् का स्वरूप सूत्र रूप में वर्णित किया गया है। मूलपाठ का अर्थ इस प्रकार है-सिद्धिगति शीत, उष्णता, क्षुधा पिपासा, दंश-मशक, सर्प आदि से होने वाली समस्त बाधाओं से रहित होने के कारण शिव है । स्वाभाविक अथवा प्रयोगजन्य हलन-चलन, गमन-आगमन की कोई भी कारण न होने से अचल है । रोग के कारणभूत शरीर और मन का सर्वथा अभाव होने से अरुज (रोग रहित) है । अनन्त पदार्थों संबंधी ज्ञानमय होने के कारण अनन्त है । सादि होने पर भी अन्तरहित होने के कारण अक्षय है । अथवा सुख से परिपूर्ण होने के कारण पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह अक्षत है । दूसरों के लिए बाधाकारी न होने के कारण अव्यावाध है । एक बार सिद्धि प्राप्त कर लेने के बाद मुक्तात्मा फिर संसार में नहीं आता-सदेव के लिए जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है इसलिए अपुनरावृत्ति है। ऐसा सर्वथा निरामय और निरुपम परमानन्द-धाम लोकाग्र में है। वह सिद्धिगतिस्थान कहलाता है । सिद्ध भगवान् उसी स्थान पर विराजमान रहते हैं।