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________________ * सागारधर्म - श्रावकाचार * [ ७३७ छठा व्रत धारण करने से ३४३ घनरज्जु विस्तार वाले सम्पूर्ण लोक सम्बन्धी जो पाप श्राता था वह रुक कर जितने कोस की मर्यादा की होती है उतने ही कोस क्षेत्र का पाप लगता है । व्यापक तृष्णा का निरोध हो जाता है और मन को सन्तोष तथा शान्ति प्राप्त होती है । सातवाँ व्रत - उपभोगपरिभोगपरिमाण श्राहार - अन्न, पानी, पकवान, शाक, इत्र, तांबूल आदि जो वस्तु एक ही बार भोगी जाती है वह उपभोग कहलाती है और स्थान, वस्त्र, आभूषण, शयनासन, वासन आदि जो वस्तु बार-बार भोगी जाती है वह परिभोग कहलाती है । इन दोनों प्रकार की वस्तुओं के मुख्य रूप से २६ प्रकार कहे हैं । श्रावक उनकी मर्यादा कर लेता है । यथा: (१) उल्लखियाविहं – शरीर साफ करने या शौक के लिए रक्खे जाने वाले रूमाल, वाल आदि की मर्यादा । (२) दंत विहं - दातौन करने के काष्ठ की मर्यादा । फलविहं - ग्राम, जामुन, नारियल, नारंगी आदि फलों को खाने की मर्यादा तथा माथे में लगाने के लिए आंवला आदि की मर्यादा । (४) संगणविहं तर, तेल, फुलेल आदि की मर्यादा । (५) उब्वट्टण विहं -- शरीर को स्वच्छ और सतेज करने के लिए पीठी वगैरह उबटन लगाने की मर्यादा । (६) मज विहं- - स्नान के लिए पानी की मर्यादा । (७) वत्थविहं - वस्त्रों की जाति और संख्या की मर्यादा । * एक गज रेशम बनाने में हजारों कीड़ों का घात होता है । रेशम के कीड़े अपने मख से लार निकाल कर अपने ही शरीर पर लपेट लेते हैं। उन कीड़ों को उबलते हुए पानी
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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