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________________ ७३४ 1 *जैन-तत्व प्रकाश * और उत्तरदायित्वों को निभाते हुए भी परलोक का तथा आत्महित का भी ध्यान रखना चाहिए और मन में सन्तोषवृत्ति जगानी चाहिए । जो पुरुष धर्मकार्य में अपनी लक्ष्मी का व्यय करता है, उसकी लक्ष्मी अचल रहती है। उसकी कीर्ति बढ़ती है। उसे जन-समाज में प्रतिष्ठा मिलती है । उसका हृदय सन्तुष्ट रहता है । इस प्रकार वह वर्तमान जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करके अपने भविष्य को भी उज्ज्वल बना लेता है और स्वर्ग एवं मोक्ष का अधिकारी बनता है । तीन गुणवत तीन गुणव्रत पूर्वोक्त पाँच अणुव्रतों के सहायक हैं। जिस प्रकार कोठार में रक्खा हुआ धान्य नष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार इन तीन गुणव्रतों को धारण करने से पाँच अणुव्रतों की रक्षा होती है । असंयमी जीव को समस्त दिशाओं और समस्त देशों सम्बन्धी अविरति निरन्तर आया करती है । गुणवतों को धारण करने से उसका संकोच होता है और आत्मा के गुणों में विशुद्धि तथा वृद्धि होती है । इस कारण इन्हें गुणत्रत कहते हैं। तीनों गुणव्रतों का स्वरूप आगे लिखा जाता है: छठा व्रत - दिशापरिमाण मुख्य दिशाएँ तीन हैं— (१) ऊर्ध्व (ऊँची दिशा (२) अधो (नीची) दिशा और (३) Fast दिशा । तिर्बी दिशा के चार प्रकार हैं- (१) पूर्व (२) दक्षिण (३) पश्चिम (४) उत्तर । इस प्रकार छह दिशाएँ भी कही जा सकती हैं। चार तिर्थी दिशाओं के सन्धिस्थलों को विदिशा या दिक्कोण कहते हैं । वे इस प्रकार हैं- (१) अग्निकोण (२) नैऋत्यकोण (३) वायव्यकोण और (४) ईशान कोण । इन चारों को भी पूर्वोक्त छह दिशाओं में
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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