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________________ * सागारधर्म-श्रावकाचार * [ ७२५ कई धनवान् माता-पिता के पुत्र भिखारी हो गये हैं। अभी तो तुम पुत्रपौत्र आदि की और अपने शरीर की रक्षा करने की चिन्ता कर रहे हो, किन्तु जब गर्भाशय में जठराग्नि पर उलटे लटकते थे तब किमने तुम्हारी रक्षा की थी ? गर्भाशय से बाहर आते ही दूध पीने की आवश्यकता हुई तो किसने माता के स्तनों में दूध पैदा कर दिया था ? यह तुम्हारा पुण्य ही तो था जिसके उदय से तुम गर्भाशय से जीवित बाहर निकल आये और बाहर आते ही माता के स्तनों में दूध भर गया ! इसी से तुम वृद्धि पाकर सब काम करने योग्य हुए हो। अब शरीर का पोषण करने की, पेट भरने की और पुत्र-पौत्र आदि की जीविका के लिए क्यों हाय-हाय करते हो ? अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार सबको सब वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं । भविष्य में भी दैव के अनुसार समय पर सब कुछ प्राप्त हो जायगा ।* ऐसा समझ कर और सन्तोष धारण करके तृष्णा को अधिक नहीं बढ़ने देना चाहिए, किन्तु अपने पास जितना धन हो उसी में सन्तोष मान कर आनन्द और कामदेव आदि श्रावकों की तरह अधिक नहीं बढ़ाना चाहिए । कदाचित् इतनी तृष्णा न जीत सको तो भी एक निश्चित सीमा अवश्य बाँध लेना चाहिए और उसके उपरान्त धन की तृष्णा त्याग देना चाहिए । कहा जा सकता है कि हमारे पास जब सौ रुपया भी नहीं है तब एक लाख की मर्यादा कर लेने से और उससे अधिक का प्रत्याख्यान करने से क्या लाभ होगा ? ऐसा कहने वालों को जानना चाहिए कि स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः यद्यपि सोच करे धन को कहो गर्भ में केतक गांठ को खायो, जा दिन जन्म लियो जग में तब केतिक कोटि लिये संग श्रायो ? धाको भरोसो क्यों छोड़े अरे मन जासौं अहार अचेत में पायौं ? ब्रह्म भने जन सोच करे वही सोची जो विरह लायौं लहायौ । -ब्रह्मविलास ।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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