SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 769
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * सागारधर्म-श्रावकाचार * [७२३ आदि दुष्ट देव उसका कुछ भी विगाड़ नहीं कर सकते । उसके लिए अग्नि भी पानी बन जाती है। समुद्र स्थल के समान हो जाता है। सिंह बकरी सरीखा बन जाता है । सूर्य, फूलमाला के समान और वन, ग्राम के समान हो जाता है । विष भी अमत के रूप में परिणत हो जाता है । तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचारी पुरुष के लिए अनिष्ट पदार्थ भी इष्ट रूप धारण कर लेते हैं। प्रतिदिन करोड़ मोहरों का दान करने की अपेक्षा भी एक दिन ब्रह्मचर्य पालन करने का फल अधिक होता है । इस प्रकार ब्रह्मचारी इस लोक में भी अनेक प्रकार के सुखों को भोगता है और भविष्य में भी स्वर्ग-मोक्ष आदि का परम सुख उसे प्राप्त होता है। पाँचवाँ अणुव्रत-परिग्रहपरिमाण साधु के समान पूर्ण रूप से निष्परिग्रह रहना गहस्थ के लिए सम्भव नहीं है । कहावत है-'साधु कौड़ी रक्खे तो कौड़ी का और गृहस्थ के पास कौड़ी न हो तो कौड़ी का।' अपनी प्रतिष्ठा का संरक्षण करने के लिए तथा शरीर एवं कुटुम्ब के भरण-पोषण आदि के लिए गृहस्थ को द्रव्य की आव. श्यकता होती है । अतः न्यायपूर्वक व्यापार आदि करने से जो द्रव्य प्राप्त होता है, उसमें श्रावक सन्तोष धारण करते हैं । वे अधिक तृष्णा के चक्कर में नहीं पड़ते हैं। कहा भी है—'तृष्णायां परमं दुःखम्' अर्थात् तृष्णा परम दुःख का कारण है । तथा 'तृष्णा गुरुजी बिन पाल सरबर' अर्थात् जैसे विना पाल के तालाब में कितना भी पानी आ जाय, फिर भी वह भरता नहीं है, उसी प्रकार तृष्णातुर को कितना ही द्रव्य मिल जाय तो भी उसे सन्तोष नहीं होता । शास्त्र में कहा है: जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई । -उत्तराध्ययनसूत्र । ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। लोभ की कहीं सीमा नहीं है । जिनके लिए वृक्षों के पत्ते ही वस्त्र थे, फल-कन्द
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy