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________________ ७२० ) जैन-तत्त्व प्रकाश और दुःख भोगता-भोगता, सड़ता-सड़ता मरता है। मरने के बाद भी उसे साता कहाँ ? नरक में जाने के बाद परमाधामी देवता धधकती हुई लोहे की पुतली के साथ, तीखे खीलों वाली शय्या पर सुला कर, आलिंगन कराते हैं और ऊपर से मुद्गरों की मार मारते हैं । इस प्रकार व्यभिचार इस लोक में और परलोक में भयंकर दुःख का कारण है, ऐसा जानकर श्रावक परस्त्रीगमन का सर्वथा परित्याग कर देते हैं । वे अपनी विवाहिता पत्नी में ही सन्तुष्ट रहते हैं। उसके साथ भी मर्यादा पूर्वक ही रहते हैं । (३) अनंगक्रीड़ा-कामभोग के अंगों के सिवाय अन्य अंगों से क्रीड़ा करना अनंगक्रीड़ा अतिचार कहलाता है। कोई कामुक पुरुष ऐसा विचार करे कि मैंने परस्त्रीगमन का प्रत्याख्यान किया है किन्तु अनंगक्रीड़ा करने में क्या हानि है ? ऐसा विचार कर परस्त्री के अघरों का चुम्बन करे, कुचमर्दन करे तो उसको अतिचार लगता है-व्रत दूषित होता है, क्योंकि ऐसा करना भी एक प्रकार का व्यभिचार ही है। अनंगक्रीड़ा करने के पश्चात् गमन करने से बचना कठिन हो जाता है और ऐसा करने में भावना तो उसी प्रकार दूषित हो जाती है जैसे व्रत को भंग करने में दूषित होती है । इसी कारण शास्त्र में ब्रह्मचारी को गुप्त अंगोपांगों का निरीक्षण करने की भी मनाई की गई है। काष्ठ, पाषाण, मृत्तिका, वस्त्र, चर्म आदि की पुतली के साथ भी कामक्रीड़ा करने से अनंगक्रीड़ा का अतिचार लगता है। हस्तकर्म एवं नपुंसकगमन भी अनंगक्रीड़ा में सम्मिलित हैं। यह कर्म मोहोत्पादक और विषयवर्धक है। इस तरह वीर्य का नाश करने से शारीरिक और मानसिक घोर से घोर हानियाँ होती हैं और बड़े भयानक रोग उत्पन्न होते हैं । अतएव ऐसे नीच, निंद्य, निरर्थक, और नालायकी भरे कर्मों का श्रावक सर्वथा परित्याग कर देते हैं। (४) परविवाहकरणे-स्वजन के सिवाय दूसरों का विवाह-संबंध करावे तो अतिचार लगता है। कितनेक अन्य मतावलम्बी कन्यादान करने में धर्म
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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